भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
विचार किया जाय तो वस्तुतः वाच्य-वाचक का भेद भी नहीं है। ये दोनों भी एक ही चेतन के विवर्त्त हैं। अभिधेय-प्रपंचजननानुकूल शक्त्यवच्छिन्न चेतन का विवर्त्त अभिधान है। जिस प्रकार एक ही समुद्र में अनन्त तरंगें प्रादुर्भूत हो जाती हैं उसी प्रकार एक ही परब्रह्म में अभिधान-अभिधेय रूप अनन्त तरंगें प्रादुर्भूत हो गयीं है। किन्तु ‘तदभिन्नाभिन्नस्य तदभिन्नत्वनियमात्’ इस न्याय के अनुसार तरंगाभिन्न समुद्र के साथ तरंगों का अभेद होने के कारण उनका आपस में भी अभेद है। यह बात तो तरंग से तरंगान्तर के अभेद की रही। किन्तु मूल दृष्टि से तो अभिधानात्मक तरंग जिस समुद्र में है लक्षणा-वृत्ति से वह उस समुद्र का ही बोधन करती है; हाँ, तरंगान्तर को वह अभिधावृत्ति से बोधित करती है, क्योंकि किसी की भी शक्ति अपने शक्य में ही सफल हुआ करती है, अपने कारण में नहीं होती। दाहकत्व, प्रकाशकत्व आदि शक्तियों वाला अग्नि अपने दाह्य काष्ठादि को ही दग्ध कर सकता है, अपने स्वरूपभूत अग्नि का दहन नहीं कर सकता। किन्तु मूल रूप से तो तरंगें समुद्र से भिन्न नहीं हैं। यद्यपि यह दूसरी बात है कि ‘अकारो वै सर्वा वाक्’ इस श्रुति के अनुसार सम्पूर्ण वाङ्मय-प्रपंच का अकार में और अकार का उकार में और उकार का मकार में तथा उसके पश्चात सम्पूर्ण प्रपंच का तुरीय में लय होता है। तात्पर्य यही है कि अभिधानात्मिकता श्रुतियाँ अनन्त चैतन्यानन्द-सुधासिन्धु की तरंगों के समान हैं और वे अभिधेय रूप उसकी अन्य तरंगों के साथ वृद्धि को प्राप्त होकर प्रकाशित होती हैं, क्योंकि अभिधेय अर्थ उनके शक्य हैं। श्रुतियाँ अपने उद्गमस्थलभूत परमतत्त्व का तो लक्षण से ही बोध कराती हैं। यद्यपि किसी दृष्टि से ‘घट’ शब्द का वाच्य घटाकार में परिणत मृत्तिका भी हो सकती है तथापि लोक में ‘घट’ पद की वाच्य घट व्यक्ति ही समझी जाती है। इसी प्रकार अभिधानात्मक ब्रह्मतरंग का वाच्य अभिधेयात्मक ब्रह्मतरंग है, परन्तु है लक्षण से। फिर मीमांसकों ने तो जाति में ही शक्ति मानी है; जाति घटत्वादि को कहते हैं, जिसे घटभाव भी कहा जा सकता है। घट कार्य है; कार्य का भाव कारण से व्यतिरिक्त नहीं हुआ करता, समस्त कार्यों का भाव कारण में ही पर्यवसित होता है। अतः समस्त शब्दों की वाच्यता का पर्यवसान कारण परम्परा क्रम से सन्मात्र में ही होता है। इसलिये सारे शब्दों का वाच्य परमात्मा ही है। इस प्रकार वाच्य-वाचक का अभेद है और समस्त श्रुतियाँ तत्पदार्थ से अभिन्न ही हैं। अतः यहाँ ‘ताः’ शब्द से सभी श्रुतियाँ ग्रहण की जाती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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