भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यदि कहो कि इसका हेतु क्या है तो हमारा यही कथन है कि हेतु कुछ भी नहीं है। यह देखा ही जाता है कि आत्माराम मुनिजन भी भगवान की माधुरी पर आकर्षित हो जाया करते हैं। वास्तव में तो उन्हें भी कोई कर्तव्य नहीं हुआ करता।
तथापि वे भगवच्चर्चा में लगे ही रहते हैं। उन्हें स्वयं भी इस बात का पता नहीं लगता कि हमारा चित्त उसमें क्यों आसक्त है। बहुत हुआ तो कह देंगे- ‘इत्थंभूतगुणो हरिः’-भाई, भगवान हैं ही ऐसे गुण वाले। किन्तु युक्ति युक्त विचार से तो यही सिद्ध होता है कि आत्माराम को किसी भी गुण से आकर्षित नहीं होना चाहिये। यदि कहो कि वे इसलिये भजन-ध्यान में लगे रहते होंगे जिससे कोई ग्रन्थि न रह जाय तो ऐसा कहना भी उचित नहीं, क्योंकि वे निग्रन्थ होते हैं- ‘निग्रन्था अपि।’ यद्यपि लोक में ऐसा देखा जाता है कि बिना प्रयोजन के कोई भी प्रवृत्ति नहीं होती, तथापि इनका कोई प्रयोजन भी नहीं होता। वस्तुतः भगवान में यह गुण ही है। जिस प्रकार लोहे को आकर्षित करना अयस्कान्तमणि का स्वभाव है उसी प्रकार भगवान भी आत्मारामों के चित्तों को अपनी ओर खींच लिया करते हैं। अयस्कान्तमणि यद्यपि सभी प्रकार के लोहे को खींच लेती है तथापि जो लोहा जितना निर्दोष होता है उतना शीघ्र आकृष्ट होता है। इसी प्रकार भगवान भी तत्त्ववेत्ताओं के निर्मल चित्तों को अधिक आकर्षित करते हैं। यह भगवान के सौन्दर्य-माधुर्य का महत्त्वातिशय है। इसी प्रकार यद्यपि भगवान आप्तकाम हैं, पूर्ण हैं, निरतिशय हैं; तथापि यह गोपांगनाओं का प्रेमातिशय ही था कि जिसने भगवान को भी आकर्षित कर लिया, इससे भगवान के साधुर्य एवं सौन्दर्यातिशय की अपेक्षा भी व्रजांगनाओं के प्रेमातिशय की उत्कृष्टता सिद्ध होती है। सनकादि और शुकादि भी आत्मरत थे और भगवान भी आत्मरत हैं; परन्तु भगवान की आत्मरति में और उनकी आत्मरति में अन्तर है क्योंकि समग्र ज्ञान, समग्र वैराग्य और समग्र ऐश्वर्य तो एकमात्र भगवान में ही है और किसी में नहीं है तथापि भगवान ने तो अपने सौन्दर्यातिशय में असमग्र ज्ञान-वैराग्यपूर्ण सनकादि को ही मोहित किया, परन्तु गोपांगनाओं ने अपने प्रेमातिशय से समग्र ज्ञान वैराग्यसम्पन्न भगवान को भी मोहित कर लिया। इसी से यहाँ ‘अपि’ शब्द का प्रयोग किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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