भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
सृष्टिमात्र का प्रयोजक काम ही है। सृष्टि के आरम्भ में जैसा भाव रहता है उत्तरकालीन पंपच भी उसी का अनुसरण किया करता है। जैसे सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए हिरण्यगर्भ को एकाकी रहने पर रमण नहीं हुआ वैसे ही अब भी अकेले रहने पर लोगों को भय और अरमण हुआ करता है। सर्गारम्भ में परमेश्वर कामप्रयुक्त (संकल्प द्वारा प्रेरित) प्रकृति से संयुक्त होकर प्रपंच की रचना करते हैं; इसीलिये लौकिक पुरुष भी काम प्रयुक्ता प्रकृतिरूपा पत्नी से संयोग करके प्रजा की रचना करते हैं। श्रुति भी कहती है- ‘सोऽकामयत एकोऽहं बहु स्याम्’-भगवान ने इच्छा की कि मैं अकेला हूँ, अनेक हो जाऊँ। वह भगवदिच्छा ही आदि-काम है। आगे यह बतलाया जायगा कि जिस प्रकार एक सत्तत्त्व ही सुख-दुःखादि शुभाशुभ विशेषण विशिष्ट होकर हेय और उपादेय होता है, उसी प्रकार लौकिक और अलौकिक आलम्बन के कारण काम भी हेय और उपादेय हो जाता है। शुभाशुभ विशेषण शून्य सत्तत्त्व तो निर्विशेष ब्रह्म ही है; वह न हेय है, न उपादेय। यह कहने की भी आवश्यकता नहीं कि विशेषण भी विशेष्य से अभिन्न ही होता है। जिस प्रकार मृत्तिका का परिणाम अत: उससे अविभिन्न घट मृत्तिका के विशेषण रूप से व्यपदिष्ट होता है तथा जैसे घटाकाश का अवच्छेदक और उसका विशेषणभूत घट भी आकाश से अभिन्न ही है, क्योंकि वायु, तेज और जलादि के क्रम से आकाश ही घटरूप हो जाता है और कार्य तथा कारण में अभिन्नता होती है-यह प्रसिद्ध ही है, उसी प्रकार शुभाशुभ विशेषण भी सत्तत्त्व से अभिन्न ही हैं, तथापि व्यवहार में उसके विशेषण होने से उसके भेदक भी हैं। इस प्रकार प्रपंचात्पादन के लिये प्रकृति के संसर्ग में प्रवृत्त करने वाली इच्छाया रस ही काम है। यही साक्षात काम (साक्षान्मन्मथ) है। इस काम का एक बिन्दु ही अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों में व्याप्त है। यह साक्षात्काम रसात्मक ब्रह्म का ही औपाधिक या विकृत रूप है। यह कारणब्रह्म के मायावृत्तिरूप मन में क्षोभ उत्पन्न करता है। फिर जिस प्रकार पुरुष कामक्षुब्ध होकर प्रजोत्पादन के लिये स्त्री से संसर्ग कर उसमें गर्भाधान करता है उसी प्रकार इससे क्षुब्ध हुआ कारण ब्रह्म प्रकृतिरूप अपनी योनि से संसृष्ट होकर उसमें गर्भाधान कर देता है। जिस प्रकार स्त्री का गर्भाशय पुरुष का वीर्य प्राप्त होन पर ही प्रजोत्पादन में समर्थ होता है उसी प्रकार पुरुष के चैतन्य-प्रतिबिम्बरूप वीर्य के प्राप्त होने पर ही अर्थात पुरुष के सान्निध्य से प्राप्त हुए चैतन्य-सामर्थ्य से ही प्रकृति महदादि प्रजाओं को उत्पन्न कर सकती है। जिनका हृदय पाशविक संस्कारों से दूषित है उन नरपशुओं को जिस चर्मखण्ड में योनिबुद्धि है वह वस्तुतः योनि नहीं कही जा सकती। योनितत्त्व तो अतीन्द्रिय है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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