विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
जैसे एक ही समुद्र में समुद्र तरंग एवं परस्पर सम्बन्ध वस्तुतः अविभिन्न होते हुए भी त्रिधा व्यवहृत तथा अनुभूत होते हैं, वैसे ही अनन्तकोटि ब्रह्माण्डान्तर्गत निखिल सौख्य जिसके तुषार के समान है, उसी अचिन्त्याऽनन्त सौख्य-सुधासिन्धु परमतत्त्व में परम विशुद्ध आह्लादिनी शक्ति के सम्बन्ध से प्रेम तथा उसके आश्रय विषय का अद्भुत चमत्कारी अनुपम विकास है। प्रेमतत्त्व के लिये स्वाभिवृद्ध्यर्थ स्वाश्रय विषय का विप्रयोग अपेक्षित है। उससे भी कहीं अधिक अव्यवधान लक्षण संप्रयोग भी अपेक्षित होता है। क्योंकि प्रथम किसी तरह संप्रयोग संपन्न होने पर ही विप्रयोग भी रस का अभिव्यंजक होता है। विप्रयोगाग्नि-संतप्त भावुक संप्रयोगाऽमृत बिना जीवन ही असंभावित है। यह बात दूसरी है कि बहिरंग अल्पदर्शी देशादिकृत व्यवधानराहित्य में ही तृप्त हो जाते हैं। सूक्ष्मज्ञ तथा अन्तरंग भावुक, देशकृत, कालकृत, वस्तुकृत, समस्त व्यवधानराहित्य बिना नहीं तृप्त होते। यही बात स्वात्मसमर्पण-रूप भक्ति के विषय में भी समझनी चाहिये। अर्थात कुछ महानुभाव वित्त, पुत्र, कलत्र, देहादि समर्पण कर स्वरूप का अस्तित्व रखते हुए भी तृप्त हो जाते हैं एवं कुछ महानुभाव अपरिच्छिन्न स्वप्रकाशात्मक परमतत्त्व में अनेकाऽनर्थोपप्लुत जीवभाव के पृथक अस्तित्व की कल्पना स्वप्रकाश सूर्य में अंधकार की कल्पना के समान अनुचित समझकर स्वस्वरूप को भी भगवान में सर्वथा समर्पण कर भगवान की पूर्णता के बाधक का अपनयन करते हैं। इसी वास्ते भगवान भी अभेद का समर्थन करते हैं- “विभक्तमिव च स्थितम्”। परमतत्त्व वस्तुत: एक होता हुआ भी सुर, नर, तिर्यगादि रूप से बहुधा स्थित है। ‘विभक्तमिव’ इत्यादि स्थलों में जो तटस्थ ईश्वर की विभक्तवत् व्यवस्थिति मानते हैं उनके यहाँ अप्रसिद्ध रूपदोष अनिवार्य है। क्योंकि स्वरूप से परमेश्वर विभक्तवत् अर्थात वस्तुतः एक परन्तु पृथक-पृथक स्थित के समान होता है। यह अत्यन्त अप्रसिद्ध है। “क्षेत्रज्ञं चापि मा विद्धि” क्षेत्रज्ञ त्वं पदार्थ को ‘मां विद्धि’ परमात्मस्वरूप ही समझना चाहिये। क्षेत्रज्ञ शब्द का जीव ही अर्थ है, परमेश्वर नहीं। क्योंकि जैसे माया का असाधारण सम्बन्ध परमेश्वर के साथ है अतः “मायिनं तु महेश्वरम्” के अनुसार मायी महेश्वर है, वैसे ही क्षेत्र का असाधारण सम्बन्ध जीव से ही है। अन्यथा क्षेत्र दुःखादि का सम्बन्ध भी परमेश्वर में अनिवार्य होगा। ‘क्षेत्रज्ञ’ तथा ‘मां’ का यदि एक ही अर्थ है तब अभेद सम्बन्ध से शाब्दबोध भी असम्भव है, यदि पृथक है तो भी उद्देश्य-विधेय में लक्षण-लक्ष्य की तरह ज्ञातता-अज्ञातता अपेक्षित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज