भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निर्गुण या सगुण?
अन्तरात्मा, अन्तःकरण, प्राण, इन्द्रियाँ तथा रोम-रोम में आन्तरबाह्य सर्वरूप से प्रभु का सुमधुर स्वरूप अनुभव करने के लिये ही ज्ञानीजन भक्तियोग से श्रीपरमहंस हो जाते हैं और वे ही शुद्ध प्रेमी होते हैं। अतः इनके लिये प्रभु का प्रादुर्भाव है। ऐसे ही शुद्ध-प्रेमियों में श्रीव्रजांगना प्रभृति थीं, जिन्हें श्रीकृष्ण के विरह में एक क्षण भी सहस्रों युग के समान प्रतीत होते थे और श्रीकृष्ण के सम्मिलन में सहस्र कल्प भी क्षण के समान प्रतीत होते थे। इस तरह जो प्रभु के बिना प्राण धारण ही नहीं कर सकते हैं उनके लिये भी प्रभु का प्राकट्य होता है। इस शुद्ध तत्त्वनिष्ठ प्रेमी के लिये मुख्यरूप से प्रभु का प्राकट्य होता है। फिर तो मुमुक्षुओं के लिये किंबहुना प्राणिमात्र के कल्याण के लिये भी प्रभु का प्राकट्य होता है। इसी वास्ते तो श्रीशुकदेव जी ने प्राणिमात्र के निःश्रेयस को ही प्रभु-प्राकट्य का प्रयोजन कहा है- “नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप। अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मनः।” यहाँ ‘नृणां’ से ‘नरमात्राभिमानिनां’ यह अर्थ समझना चाहिये। जैसा कि ‘न कर्म लिप्यते नरे’ यहाँ पर श्रीशंकराचार्य भगवान ने ‘नरे’ का ‘नरमात्राभिमानिनि’ यह अर्थ किया है। भावार्थ यह हुआ कि ज्ञानी और उपासकों से भिन्न साधारण अज्ञ-प्राणियों के निःश्रेयस के लिये निर्गुण निराकार निर्विकार भगवान का सगुणरूप में प्राकट्य होता है। अत: काम, क्रोध, ईर्ष्या‚ भय, स्नेह आदि किसी भी भाव से भगवान में चित्त लगाने से प्राणियों का कल्याण हो जाता है, अर्थात यहाँ ज्ञान के बिना भी प्राणियों का कल्याण हो जाता है। जैसे विष-बुद्धि से भी अमृतपान करने से अमृतत्त्व लाभ होता है, वैसे ही ब्रह्मबुद्धि बिना भी जिस किसी तरह भी श्रीकृष्ण का सेवन करने से भगवत्प्राप्ति हो ही जाती है; क्योंकि वस्तु-शक्ति ज्ञान की अपेक्षा नहीं करती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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