भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निर्गुण या सगुण?
इस तरह सर्व प्रपंचों से हटकर अपने ध्येय में स्थित मन को जब ध्येयग्रहण में भी सामर्थ्य न रहा, तब जो वेदान्तवेद्य सच्चिदानन्द भगवान अभी तक ध्येयरूप में स्थित थे, वही अब ध्येय-ध्यान-ध्याता और उन तीनों के अभाव के प्रकाशरूप से अभिव्यक्त होते हैं। ध्याता-ध्यान-ध्येय, प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय आदि त्रिपुटियों का ऐसा स्वभाव है कि इनमें एक के मिटने से तीनों ही मिट जाते हैं।
ध्येय न रहने पर ध्यान भी नहीं रहता, क्योंकि ध्येयाकार मानसी वृत्ति को ही ध्यान कहा जाता है और ध्यानरूपा वृत्ति के आश्रय अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य को ही ध्याता कहा जाता है। अतः जब ध्यान नहीं तब ध्यान का आश्रयभूत ध्याता भी नहीं उपलब्ध होता है और ध्याता तथा ध्यान के न होने पर ध्याता के ध्यान का विषयीभूत ध्येय भी कैसे उपलब्ध हो सकता है। इस तरह हो सर्वावभासक भगवान अभी ध्येयरूप से स्थित थे वे ही किसी समय के सर्वभावभासक तथा इस समय सर्वाभाव के भासक रूप से अभिव्यक्त हो जाते हैं। इस तरह प्रभु के अमृतमय मुखचन्द्र के माधुर्यामृत-सौन्दर्यामृत पान से उन्मत्त मन की शिथिलता और निश्चलता होते ही ध्यान-ध्येय-ध्याता के भाव तथा अभाव के भासक शुद्ध प्रत्यङ्ङन्तरात्मा स्वरूप से अनन्त अखण्ड व्यापक आनन्दघन भगवान प्रकट हो जाते हैं। इस तरह सहज ही में भगवान अपने ही मधुर स्वरूप में मन को खींचकर और अपने माधुर्य सौन्दर्यामृत पान से मन को विभोर कर, त्रिपुटी मिटाकर, सर्वाभावभासक शुद्ध सच्चिदानन्दरूप में प्रकट होकर भक्त को सदा के लिये कृतार्थ कर देते हैं। भागवत के द्वितीय स्कन्ध में भी विराट आदि भगवान के स्थूलरूप के ध्यान के अनन्तर अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक प्रभु की मधुर मंगलमयी मूर्ति का ध्यान बताया गया है। ध्यान चित्त की पूर्ण एकाग्रता होने पर भगवान के अखण्ड, अनन्त, स्वप्रकाश बोधस्वरूप का साक्षात्कार कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज