भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
जो ब्रह्मनिष्ठा औरों को दुष्प्राप्य है, वही इनके लिये दुस्त्याज्य है। अन्यान्य दुस्त्यजों का भी त्याग हो सकता है, परन्तु यह अन्तिम दुस्त्यज है। श्रीभगवान से अधिक माधुर्य कहाँ सम्भव है कि जिससे उसका त्याग सम्भव होगा? जैसे लोकैषणा, पुत्रैषणा और वित्तैषणा विनिर्मुक्त ब्रह्मनिष्ट सर्वकर्म संन्यासी का कर्मत्याग भूषण है, दूषण नहीं है, वैस ही श्रीकृष्ण प्रेमोन्माद में लोक-वेदातीत श्रीव्रजांगनाओं का लज्जा एवं आर्यधर्मत्याग भूषण ही है, दूषण नहीं है। जैसे मुख्य पति की प्राप्ति में पति की प्रतिमा का त्याग, किंवा मुख्यविष्णु की प्राप्ति में विष्णु प्रतिमा का पूजनत्याग दोष नहीं है, वैसे ही परमाराध्य परम पति भगवान श्रीकृष्ण की प्राप्ति में व्रजांगनओं का आर्यधर्मत्याग भूषण ही है। कर्म और उपासनाओं से मलविक्षेप की निवृत्ति द्वारा ज्ञान से ब्रह्म का स्फुरण होता है। ब्रह्म स्फुरण होने पर फिर सर्वचेष्टाओं से विवर्जित होकर ब्रह्मनिष्ठा ही सम्पादन करनी होती है। उस समय कर्म और उपासना किसी प्रकार का भी प्रयत्न उस निष्ठा प्रतिबन्धक होने से त्याज्य ही है। इसीलिये कहा है- “तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा न किन्चिदपि चिन्तयेत्।” भगवान के अनुभव और सेवन में जिसका जब तक उपयोग है, वह तब ही तक ग्राह्य है। जब वही भगवदनुभव का प्रतिबन्धक हो, तब तो वह निःसंकोच रूप से त्याज्य है। भगवत्प्राप्त्यर्थ या धर्म और राष्ट्र आदि के रक्षार्थ प्राणत्याग ‘त्याग’ है और पर स्त्री, पर धन के लिये प्राणत्याग भी “त्याग” है, परन्तु एक की पुण्यरूपता तथा दूसरे की पापरूपता स्पष्ट ही है, यथाः-
सारांश यही कि पति-शुश्रूषा, पतिव्रत और लज्जा आदि सभी आर्य धर्मों का परम फल यही है कि समस्त प्राणियों के निरतिशय, निरूपाधिक, पर प्रेमास्पद सर्वाराध्य और सर्वपति भगवान श्रीकृष्ण की प्राप्ति हो। जब तक जो इसके अनुकूल है, तब तक ही वह आदरणीय है, परन्तु जब वही उस चरमध्येय की प्राप्ति में प्रतिबन्धक होने लगा तब तो उसका त्याग ही श्रेष्ठ है- "बलि गुरु तज्यो कन्त ब्रजबनितनि भे जग मंगलकारी।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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