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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीवृन्दावन में वर्षा और शरत
वर्षा में वृक्ष पादों में जल पान कर नाना रूपवाले शाखा, पल्लव, पुष्प, फल आदि से समन्वित हो उठे, जैसे पहले तपस्या से दुर्बल तपस्वी कामों के सेवन से अनेक रूप देहवाले हो जाते हैं, पंककण्टकादियुक्त अशान्त सरोवरों पर भी सारस, चक्रवाकादि टिके हुए हैं। जैसे अशान्त, उल्वण कर्मवाले गृहों में भी वैषयिक सुख-लेश की आशा से कटुम्बी लोग टिके रहते हैं। पर्जन्य की वर्षा में जलौघों से सेतु छिन्न-भिन्न वैसे ही हो जाते हैं, जैसे कलियुग में पाखण्डियों के असद्वादों से वेदमार्ग, वर्णाश्रम धर्म छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। वायु के प्रेरणा से मेघ प्राणियों के लिये अमृतमय जल देते हैं, जैसे ब्राह्मणों की प्रेरणा से राजा लोग अर्थियों को अभीष्ट अर्थ प्रदान करते हैं। पुनः शरद् के प्रभाव से कमलों की उत्पत्ति से जल स्वच्छ, प्रकृतिस्थ हो गया, जैसे भ्रष्ट लोगों का चित्त गोग सेवा से पुनः स्वस्थ, शान्त हो जाता है। शरद् ऋतु ने आकाश, भूत, पृथ्वी और जल के बादल, शवलता (सांकय), पंक और मलिनता को हर लिया, जैसे कृष्ण की भक्ति चारों आश्रमियों के अशुभों को हर लेती है। मेघ अपने सर्वस्वभूत जल को छोड़कर शुभ्र तेजयुक्त होकर शोभित होते हैं, जैसे सर्वैषणाओं से विनिर्मुक्त होकर मुक्तकिल्विष मुनि शान्त होते हैं -
गाध (छिछले) जल में रहने वाले मीनादि क्षीयमाण (सूखते हुए) जल को नहीं जानते, जैसे कुटुम्बी प्रतिदिन क्षीण होती हुई आयु के नहीं जानता। थोड़े जल के मीन शरद् के सूर्य ताप से तप्त होने लगे, जैसे दरिद्र, कृपण, अजितेन्द्रिय कुटुम्बी क्षुद्रादि (भूख आदि) प्रयुक्त तापों से तप्त होता है। स्थल शनैः-शनैः पंक को और विरुध (वृक्षादि) अपक्वता को छोड़ने लगे, जैसे धीर पुरुष शरीरादि अनात्माओं में शनैः-शनैः अहंता और ममता को छोड़ता है। शरद् के आगमन में समुद्र का जल निश्चल हो गया, जैसे मन के उपरत हो जाने पर मुनि आगमों के अभ्यास से उपरत होकर तूष्णी (चुप) हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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