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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
साक्षान्मन्मथमन्मथः
परिरम्भण करके, अलक-उरु-नीवी-स्तन का स्पर्श करके, परिहास, नखपात, क्ष्वेलि, अवलोक हास से भी कन्दर्प को निगृहीत करके ही व्रजसुन्दरियों को रमण कराया, यथा- श्रीव्रजांगनाओं के साथ श्रीकृष्ण जी के नानाविध हावभाव कटाक्षों तथा कन्दर्प वसन्त आदि के अस्त्र-शस्त्र प्रयोग सब व्यर्थ हो गये, और आत्माराम श्रीकृष्ण ज्यों के त्यों निर्विकार रह गये। अनन्त ब्रह्माण्डान्तर्गत कामबिन्दु का उद्गम स्थान, जो साक्षात मन्मथ है, उसके भी मन को श्रीकृष्णचन्द्र ने मथ डाला, इसलिये वे साक्षात मन्मथ-मन्मथ कहलाते हैं। वस्तुतः प्रेममयी व्रजांगनाओं के स्मरण से काम का दर्प दलित हो सकता है। भावुकों का मत है श्रीकृष्ण के नखमणि चन्द्रिका की एक रश्मि छटा के ही दर्शन से साक्षात मन्मथ मोहित हो गया। इतना ही नहीं, उसने उत्कट उत्कण्ठा से यह दृढ़ संकल्प कर डाला कि सहस्रों जन्मों तक तीव्रातितीव्र तपस्याओं के द्वारा व्रजांगना भाव को प्राप्त करके, प्रियतम प्राणधन श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द की नखमणि चन्द्रिका की रश्मि छटा का सेवन करूँगा। इसलिये ही तो भगवान साक्षात मन्मथ-मन्मथ हुए। ब्रह्मसाक्षात्कार तथा ब्राह्मसंस्पर्श से, कामादि विकारों का आत्यन्तिक क्षय हो जाना स्वाभाविक ही है, फिर प्रेममयी व्रजांगनाओं और उनके प्रियतम प्राणधन भगवान में काम का प्रभाव क्या पड़ सकता था? काम पराजित होकर ही प्रद्युम्न रूप से श्रीकृष्ण का पुत्र बना, अत: श्रीकृष्ण और व्रजांगनाओं के रमण में काम का उपयोग नहीं है, किन्तु वहाँ तो प्रेम का ही उपयोग होता है, और वही प्रेम कामपद व्यपदेश्य होता है, तभी तो भावुकों ने कहा है, “प्रेमैव गोपरामाणां काम इत्यगमत् प्रथाम्।” गोपांगना का प्रेम ही काम नाम से प्रसिद्ध हुआ। वस्तुतः कृष्णविषयक काम काम ही नहीं हो सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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