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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
साक्षान्मन्मथमन्मथः
अप्सराओं के अशेष हावभाव, वसन्त की सहायता और मेरे बाण सब निष्फल हुए, फिर भी इनमें क्रोध का संचार नहीं हुआ, कि पुनः इन्होंने हम सबों का आतिथ्य किया। तब अप्सराओं ने कहा था कि ‘हे नाथ! जिस भाँति सद्योजात बालिका हाव-भाव कटाक्षों से अपने प्रपितामह को मोहित करना चाहे, उसी भाँति आपकी माया से मोहित होकर, हम सब आपको मोहित करने चली ह भगवान ने आश्वासन करके सबको विदा किया, सो किलेबन्दी के युद्ध में इन्हें कौन पायेगा? अतः काम ने कहा, ‘भगवन! आप मैदान में ही मुझसे युद्ध कीजिये।’ भगवान ने कहा ‘तथास्तु, मैं मैदान में ही तुमसे युद्ध करूँगा।’ कामदेव भी ‘बहुत अच्छा’ कहकर चला तो गया, पर उसने जाकर श्रीव्रजांगनाओं के शरीर रूप कांचन दुर्ग का आश्रयण किया। इधर श्रीकृष्णचन्द्र ने विचार किया कि द्वितीया से चतुर्दशी तक चन्द्रमा अपूर्ण रहते हैं, अतः उन पर राहु भी आक्रमण नहीं करता, सो भगवान शंकर की कोपाग्नि से दग्धप्राय अपूर्ण कंदर्प पर विजय प्राप्त कर लनेे में कौन-सी महत्ता है? अतः कंदर्प को पूर्ण करके ही उसका जीतना युक्त है। बस, यह सोचकर श्रीकृष्ण भगवान ने मुरली को, अपने अमृतमय मुखचन्द्र पर धारण करके, उसे अधर सुधा से पूरित किया, और वेणु छिद्रों द्वारा निःसृत गीत-पीयूष को श्रोत्रपुटों द्वारा व्रजांगनाओं के हृदय में पहुँचाकर, दग्धप्राय कन्दर्प को पुनरुज्जीवित किया। श्रीकृष्ण की अधर सुधा से दग्धप्राय काम उत्तेजित हो उठा। वेणुवादन व्याज से मानों फूत्कार द्वारा कामाग्नि को उत्तेजित करके, उसमें अधर-सुधा-सिंचन द्वारा मानो घृत की आहुति दी। इतने पर भी व्रजेन्द्रनन्दन ने यह सोचा कि यह कन्दर्प मन से उत्पन्न होन वाला है, इसीलिये मनसिज या मनोज कहलाता है। श्रीव्रजांगनाओं का मन मेरा भक्त है, अतः भगवद्भक्त पिता के सन्निधान से, कन्दर्प के प्रागल्भ्य में प्रतिबन्ध हो सकता है। यही सोचकर भगवान ने वेणु-गीत-पीयूष-प्रवाह से श्रीव्रजांगनाओं के मन को हरण कर लिय, यथा व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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