भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निर्बल का बल
वस्तुतः परमज्ञानी भगवत्परायण और इस साधनशून्य अर्थार्थी या आर्त्त की स्थिति समान ही है, उसके भी सब कुछ भगवान ही हैं और इसके भी सब कुछ भगवान ही हैं। निरालम्ब निःसाधन आर्त्त एवं अर्थार्थी बड़े प्रेम और विश्वास से भगवान को पुकारता है और भगवान उसकी जल्दी ही सुनते भी हैं। प्रतिज्ञा भी उनकी यह है, एक बार भी जो प्रपन्न होता है, उसे मैं अभय देता हूँ- “सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते। हतभाग्य प्राणी को भगवान के इस व्रत पर विश्वास नहीं होता, किन्तु साधारण राजाओं और उनकी झूठी प्रतिज्ञाओं पर विश्वास होता है। आर्त्त की आर्त्ति मिटाकर भगवान उसे परम अभय देते हैं, कृतार्थ कर देते हैं। अर्थार्थी को भी अर्थप्रदान के बाद निष्काम, जिज्ञासु एवं ज्ञानी बनाकर तार देते हैं। विभीषण पहले अवश्य अर्थार्थी था। परन्तु, अन्त में तो पूर्ण परमार्थी हो गया। भगवान का दर्शन करके उसने कहा था- “उर कछु प्रथम वासना रही, प्रभु-पद-प्रीति सरिता सो बही। परन्तु, इन सब परिस्थितियों से भिन्न एक और भी छठी परिस्थिति उस प्राणी की है जो कृतकृत्य भी नहीं, निष्काम और विरक्त भी नहीं, आर्त-आर्थार्थी होकर भी निराश्रय एवं साधन-विहीन है और साथ ही भगवान पर जिसे विश्वास भी नहीं है। परन्तु, यदि उसकी आन्तर भावना ऐसी हो कि भगवान में हमारा विश्वास उत्पन्न हो और हम अपनी परिस्थितियों को समझकर भगवान को पुकारें कि ‘हे नाथ! आप ही ऐसी कृपा करो, जिससे हम आप पर विश्वास कर आपको पुकारें और आपको न भूलें और मैं ब्रह्म (भगवान) का निराकरण (उपेक्षण) न करूँ’। “माहं ब्रह्म निराकुर्याम्।” वस्तुतः भगवान की कृपा से ही प्राणी विश्वासपूर्वक भगवान की शरण जाता है। श्रीअक्रूर जी ने कहा है- “हे नाथ! आज मैं आपके श्रीचरणों के शरण आया हूँ, यह भी आपकी कृपा का ही फल है। जब प्राणियों की सांसारिक विपत्तियाँ मिटने की होती है, तभी सदुपासना से आपके श्रीचरणों में उनकी प्रीति होती है- “सोऽहं तवाङ्घ्र्युपगतोऽस्म्यसतां दुरापं तच्चाप्यहं भवदनुग्रहमीश मन्ये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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