भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
प्रभुकृपा
गृह, पुत्र, वित्त, बन्धुओं में मेरा संग (आसक्ति) न हो, यदि संग हो, तो भगवत्प्रियों, सन्तों में ही हो। प्राणयात्रा मात्र से सन्तुष्ट, अन्तर्मुख प्राणी अत्यन्त शीघ्रता से जिस सिद्धि हो प्राप्त करता है, इन्द्रिय प्रिय प्राणियों को वह स्वप्न में भी सुलभ नहीं है। जिन हेतुओं से भगवान में चित्त अनुरक्त हो, उन्हीं से विश्व का अपना लौकिक-पारलौकिक पुरुषार्थ सिद्ध होता है। श्रीहरि के चरणों में जिसकी भक्ति होती है, सम्पूर्ण देवता सर्वगुणों के साथ उसी में आकर निवास करते हैं। जो हरि के अनुरागी नहीं, नाना मनोरथों से बाह्य विषय में भटकते हैं, उनमें कहाँ देवता, कहाँ गुण?- “यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिंचना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः। श्रीलक्ष्मी जी ने कहा है कि हे देव! जो आपके श्रीचरणों की पूजा करती है, वही अखिल अभीष्टों और काम को चाहती है। जिस वस्तु को न पाकर दूसरी नारी भग्नयाच्त्रा (याचना विफल होने से निराश) होकर संतप्त होती है, उसी अभीष्ट वस्तु को वह नारी अनायास ही प्राप्त कर लेती है, जो आपको चाहती और पूजती है-
हे मायेश! हे देव! मेरी प्राप्ति के लिये फलेच्छु देवता और असुर सभी लोग उग्र तप करते हैं, परन्तु आपके श्रीचरणपरायण हुए बिना कोई भी मुझे पा नहीं सकता, क्योंकि मैं तो सदा त्वद्धृदया ही हूँ, आपमें ही मेरा हृदय सदा रहता है, अतः आपको छोड़कर मैं कहीं क्षणभर के लिये भी नहीं जा सकती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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