भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
संकल्पबल
जैसे लोगों का सहवास होता है और जैसे लोगों का सेवन होता है, जैसा होने की उत्कट वांछा होती है, प्राणी वैसा ही हो जाता है। श्रद्धेय प्राणी के प्रति श्रद्धालु का अन्तःकरण, प्राण, देह आदि झुक जाते हैं, अत एव, श्रद्धेय के उपदेशों और आचरणों के प्रभाव श्रद्धालुओं के अन्तःकरण में पड़ता है। यद्यपि सात्त्विकी श्रद्धा उत्तम व्यक्तियों में ही हुआ करती है, तथापि तामसी, राजसी श्रद्धा कहीं भी उत्पन्न हो सकती है। बुरे लोगों के सहवास से बुरी इच्छा, बुरे कर्म बन पड़ते हैं, जिनसे प्राणी का पतन हो जाता है, परन्तु अच्छे संगों, अच्छी इच्छा, अच्छे कर्मों से प्राणी सम्राट, स्वराष्ट, विराट, अनन्त, धन-धान्य-सम्पन्न इन्द्र, महेन्द्र, ब्रह्मा आदि तक बन सकता है। अच्छे संग, अच्छी इच्छा और शास्त्रोक्त उत्तम साधनों का सहारा लेकर प्राणी मनचाही वस्तु प्राप्त कर सकता है। एक जन्म या अनेक जन्मो में प्राणी अवश्य ही अपने अभीष्ट को प्राप्त कर सकता है अगर बीच ही से लौट न पड़े। अन्यान्य वस्तुओं के समान ही विचारों का भी आदान-प्रदान किया जा सकता है। प्राणी यदि अच्छे शास्त्रों विचारों का आदान चाहे, तो अच्छे शस्त्रों, अच्छे वातावरणों और बड़े-बड़े अच्छे ऋषि, महर्षि, अवतारों का स्मरण रखे, उनके विचारों, व्यवहारों को याद रखे, इससे उनके अच्छे विचारों का आदान होता रहेगा। यही उत्तम विचारों के आने के लिये द्वार को अनावृत करना है। बुरे, ग्रन्थों, वातावरणों और बुरे पुरुषो को भूलकर भी कभी स्मरण न होने देना, यदि बुरे विचारों के आने का दरवाजा बन्द करना है। बुरे विचारों से घृणा करने और उनके नाश की भावना करने से वे नष्ट भी हो जाते हैं। अच्छे विचारों का आदर और उनके उपवृंहण की भावना से वे बढ़ भी जाते हैं दूसरे के शुभानुसंधान से विचारों में बल आता है। दूसरों के अनिष्ट चिन्तन से विचार निर्वीर्य भी हो जाते हैं। विचारतत्त्वज्ञों का तो कहना है कि कोई भी प्राणों एकाग्रता से संकल्प या विचार द्वारा ही, बाहरी प्रयत्नों के बिना ही मनचाही वस्तु बना सकता है। संकल्प की पहली कोटि अर्थात आरम्भ भूल जाते ही विचारित संकल्पित पदार्थ प्रत्यक्ष हो जाता है। अर्थात लगातार बिना विच्छेद हुए निरन्तर संकल्प ही संकल्पित पदार्थ का रूप धारण करके प्रकट हो जाता है। |
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