भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
परन्तु बिना ज्ञान के यदि किसी भी साधन से मोक्ष मान लिया जाय, तो बन्धु की सत्यता और मोक्ष को कृत्रिमता तथा अनित्यता अपरिहार्य हो जायगी, इसीलिये कर्मयोग या भक्तियोग से ज्ञान प्राप्ति के बिना मोक्ष का होना अत्यन्त अशास्त्रीय है। हाँ, जो मोक्ष चाहते ही नहीं, केवल प्रेम चाहते हैं, उनकी स्थिति दूसरी है। “ताते उमा मोक्ष नहिं पावा। दशराथ भेद भक्ति मन लावा।। सगुण उपासक मोक्ष न लेहीं। तिन कहँ राम भगति निज देहीं।” निर्गुण, निराकार, निर्विकार परब्रह्म की उपासना में बड़ी कठिनाई है, परन्तु भगवान का भक्त तो भगवान के दिव्य चरण कमल का अवलम्बन करके अनायास ही भवसागर को तर जाता है। इतना ही क्यों, फिर तो उसे भवसागर और उसका पार समान ही हो जाता है। भगवान के श्रीचरण और उनकी मंगलमयी भक्ति की महिमा से स्वर्ग, अपवर्ग, दिशाएँ-विदिशाएँ सब मंगलमय हो जाती हैं। उसकी छोड़ने और ग्रहण करने की भावना ही मिट जाती है। किसी को ही क्षीरसागर के पार करने की रुचि होती है। यदि उसे तैरकर पार करना हो तब फिर कठिनाई का ठिकाना ही क्या? परन्तु यदि उसे पार करने के लिये दिव्य उपभोगसामग्रीसम्पन्न सर्वांग सुन्दर नाव प्राप्त हो जाय और उसका संचालक अपना प्रियतम प्राणधन भगवान हों, तब समुद्र पार करने में क्या कठिनाई है? आनन्द से सर्वसुख का सम्भोग करते हुए, और दिव्य शब्द, दिव्य स्पर्श, दिव्य गन्ध, दिव्य रस का आस्वादन करते हुए अर्थात अपने प्रियतम के श्रीअंग के सौगन्ध सुस्पर्श का अनुभव करते हुए प्रियतम के अमृतमय मुखचन्द्र का सौन्दर्य माधुर्य सौरस्य सुधा का आस्वादन करते हुए, प्रेमी विभोर हो जाता है। उसे भवसागर और उसके पार में कुछ भी विशेषता नहीं रह जाती। भवसागर के पार जाकर भगवान के जिन दिव्य माधुर्यदिकों का अनुभव करता है, उनका अनुभव भवसागर में ही होने लगता है। भवगसागर के पाप-तापों का उसे स्पर्श तक नहीं होता है। इसीलिये कहा जाता है कि भगवन्नाम से भवसागर सूख जाता है। इसीलिये भक्त वैकुण्ठ, कैलाशादि पद पाकर भी लोक-कल्याणार्थ पुनः लौट आते हैं और जीवों को उसी भक्तिरूपी दिव्य नाव पर बिठलाकर पार उतारते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज