भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
अतः भक्ति सहित ही ज्ञान प्रयास आदि की सफलता हो सकती है। इसी तरह के और भी बहुत से वचन मिलते हैं। भक्ति के बिना यज्ञ, वेद, तप आदि को निष्फल बताया गया है- “नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया। शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।।” मैं वेद, तप, यज्ञ, दान तथा इज्या से इस तरह नहीं देखा जा सकता हूँ, अर्जुन! जैसा तुमने मुझे देखा। “भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन, ज्ञातुं द्रष्टुंच तत्त्वेन प्रवेष्टुंच परन्तप।” हाँ, अनन्य भक्ति से तो प्राणी मेरे इस प्रकार के स्वरूप को जान तथा देख सकता है, देखकर मुझमें प्रविष्ट भी हो सकता है। यहाँ सर्वत्र ही यही अर्थ करना उचित है कि भक्ति के बिना केवल वेद, यज्ञ, दानादि से भगवा की प्राप्ति नहीं हो सकती। अन्यथा वेद, यज्ञ, दानादि का भगवत्प्राप्ति में उपयोग ही न सिद्ध होगा, परन्तु “वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः”, “यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।” इत्यादि वचनों से यह स्पष्ट सिद्ध है कि भगवान की प्राप्ति में वेद, यज्ञ, तप दानादि सबका पूर्ण उपयोग है। यही स्थिति “नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन” इत्यादि श्रुतियों की भी है। कारण- “श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः।” “ऋतंच स्वाध्यायप्रवचने च।” “स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्।” इत्यादि स्थलों में श्रवणादि को ब्रह्मसाक्षात्कार का साधन कहा गया है, अतः भगवद्भक्ति या वरण बिना केवल श्रवणादि से ब्रह्म का अपरोक्ष साक्षात्कार नहीं होता। इस सम्बन्ध में एक दोहे की संगति बड़ी सुन्दर बैठती है- “रामनाम इक अंक है सब साधन हैं सून। अंक बिना कछू हाथ नहिं अंक रहे दश गून।” अर्थात भगवान का नाम तो एक आदि अंक के समान है और समस्त साधन शून्य के समान है। अंक के बिना शून्यों का कुछ भी मूल्य नहीं, परन्तु अंक रहने पर तो शून्यों का दशगुना मूल्य बढ़ जाता है। यहाँ ध्यान देने की बात है कि शून्य भी व्यर्थ और अनादरणीय नहीं है। किसी दस्तावेज में एक अंक के अनन्तर दश शून्य हों और दशों शून्यों को मिटाकर केवल एक अंक ही रख लिया जाय तब कितना भेद होता है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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