भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
पीठ-रहस्य
अंग सम्बन्धी कोई अंश या भूषण-वसनादि का जहाँ पात हुआ, वहीं उपपीठ है। उनमें भी उन-उन विशेष शक्तितत्त्वों का आविर्भाव होता है। अनन्त शक्तियों की केन्द्रभूता महाशक्ति का जो अधिष्ठान हो चुका है, वह एवं तत्सम्बन्धी समस्त वस्तुओं में शक्तितत्त्व का बाहुल्य होना ही चाहिये। वैसे तो जहाँ भी कहीं, जिस किसी भी वस्तु में जो भी शक्ति है, उन सबका ही अन्तर्भाव महामाया में ही है-
अपनी-अपनी योग्यता और अधिकार के अनुसार इष्ट देवता, मन्त्र, पीठ, उपपीठ के साथ सम्बन्ध जोड़ने से सिद्धि में शीघ्रता होती है। तथा च-
इत्यादि वचनों के अनुसार प्रणवात्मक ब्रह्म ही निखिल विश्व का उपादान है। वही शक्तिमय सती-शरीररूप में और निखिल वाङ्मय प्रपंच के मूलभूत एकपंचाशत् वर्ण-रूप में व्यक्त होता है। जैसे निखिल विश्व का शक्तिरूप में ही पर्यवसान होता है, वैसे ही वर्णों में ही सकल वाङ्मय-प्रपंच का अन्तर्भाव होता है, क्योंकि सभी शक्तियाँ वर्णों की आनुपूर्वी विशेष मात्र हैं। शब्द-अर्थ का, वाच्य-वाचक का असाधारण सम्बन्ध किंबहुना अभेद ही होता है, अत: एक पंचाशत वर्णों के कार्यभूत सकल वाङ्मय-प्रपंच का जैसे एकपंचाशत वर्णों में अन्तर्भाव किया जाता है, वैसे ही वाङ्मयप्रपंच के वाच्यभूत सकल अर्थमय प्रपंच का उसके मूलभूत एकपंचाशत् शक्तियों में अन्तर्भाव करके वाच्य-वाचक का अभेद प्रदर्शित किया गया है। यही 51 पीठों का रहस्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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