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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
माँ के श्री चरणों में
खलों की आराधनाओं में तत्पर होकर उनके विविध उल्लापों को भी सहा, हृदय के आँसुओं को रोककर शून्य मन से उपहासों को भी सहा। माँ! आखिर जीवन भी तो क्षणभंगुर ही है। आदित्य के गमनागमन द्वारा प्रतिदिन ही तो जीवन क्षीण हो रहा है। वह कार्यभार गुरु व्यापारों से काल का बीतना भी कहाँ मालूम पड़ रहा है? माँ! जन्म, जरा, मरणादि भीषण विपत्तियों को देखकर भी त्रास उत्पन्न नहीं होता। माँ! सचमुच मोहमयी प्रमादमदिरा से हम सभी उन्मत हो रहे हैं-
यह विषय सबके सब अवश्य ही बहुत दिन बाद भी जायँगे ही। वियोग में कोई भी भेद नहीं। फिर भी प्राणी क्यों नहीं इनको स्वेच्छा से छोडता? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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