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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
माँ के श्री चरणों में
माँ! यह तो तुम्हारा खेल होगा। परन्तु मादृश पशुओं का इससे परम कल्याण होगा। माँ! गजेन्द्र की पुकार सुनकर, द्रौपदी का करुण क्रन्दन सुनकर आप ही ने तो विष्णु रूप से दौड़कर उनका उद्धार किया हैं। माँ! वस्तु स्थिति तो यह है कि वे लोग महासत्त्व और महापुरुष थे, उनके विवेक, विज्ञान एवं धैर्य की मात्रा अधिक ही थी, साथ ही उनमें सहनशक्ति भी अधिक रही होगी और आपके चरणों में प्रीति भी सुतरां उनकी अधिक थी। अपनी भक्ति के बल से वे आपको खींच सकते थे। किन्तु माँǃ मुझ दीन की ओर दृष्टि देकर देखेंगी, तो बहुत ही अन्तर प्रतीत होगा। माँ! अल्पसत्त्व, अल्पधैर्य, अल्पभक्ति, अल्पशक्ति मुझ दीन की तो माँ! एकमात्र आप ही सहारा हैं। माँ! कभी-कभी आप की माया से अविश्वास, अनास्था एवं अश्रद्धा का भी तो उपद्रव चलता ही रहता है। हे माँ! हे माहेश्वरी! हे दयार्णवरूपे! मेरा तो आपके दयाकण से ही उद्धार हो सकता है, फिर मेरी बार ही यह अनुदारता क्यों? माँ! दुर्भाग्य एवं अविवेक, विमोह एवं राग की स्थिति में प्रकृति के कण-कण उद्वेजक होते हैं। कभी-कभी दूसरों के अनुकूल भाव भी भ्रान्ति से प्रातिकूल ही प्रतीत होते हैं। शत्रु को मित्र, मित्र को शत्रु, रक्त को विरक्त और विरक्त को रक्त समझने को भी भूल होती है। परिस्थितियाँ भी सबकी पथक होती हैं! किन्तु माँ! जब हम अपना ही मन अपने वश में नहीं कर पाते, तो दूसरों के मन पर हमारा अधिकार हो जाय यह आशा कितनी भीषण दुराशा है। पुत्र, मित्र, कलत्र, बन्धु बान्धव किसी का भी अपराग हमें खलता है, और बेहद खलता है। जिन पुत्रों, मित्रों के लिये, जिन पत्नियों, प्रेयसियों के लिये न जाने क्या-क्या करना और कितना-कितना कष्ट भोगना पड़ा, उनका अपराग देखकर हृदय कितना विदीर्ण होता है। वे झूठे प्रेम के नाटक, वह झूठी आँसुओं की झड़ी, वह रहस्यपूर्ण सस्नेह मधुर वचन-विन्यास, वह मधुर मुद्राएँ, स्वात्मसर्पण की वह मधुर चेष्टाएँ और मधुर मिलन कितने भीषण सिद्ध होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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