भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
कहा जा सकता है कि श्रीकृष्ण परमेश्वर का कर्मनिमित्त जन्म न होने पर भी उनका कोई नियन्ता अवश्य होगा। इसी भ्रम को दूर करने के लिय भगवान ने कहा है- ‘‘भूतानामीश्वरोऽपि सन्’’ अर्थात प्राणियों को ईश्वर होने पर भी ‘‘एष सर्वेश्वरः’’ इत्यादि श्रुति के अनुसार सबका नियन्ता परमात्मा ही है, वह किसी के नियोग का विषय नहीं है। इस तरह अज अव्ययात्मा, ईश्वर होकर भी अपनी दैवी प्रकृति काया का सहारा लेकर वे उत्पन्न हो सकते हैं। वह्नि के दग्धृत्व शक्ति के समान परमेश्वर की अभिन्न शक्ति ही उनकी माया है। यही बात ‘‘देवात्मशक्ति स्वगुणैर्निगूढाम्’’ इत्यादि श्रुतियों से कही गयी है। उसी माया से भगवान जन्मवान से प्रतीत होते हैं। वस्तुतः भगवान निष्कल एवं निष्क्रिय ही हैं। इस विषय में श्रीआनन्द तीर्थ का कहना है कि भगवान अज और अव्ययात्मा होकर भी प्रकृति से जात, वसुदेवादि से जात होकर प्रतीत होते हैं। इस मत में भगवान का देह ही अव्यय है, उसी को नाना अवतारों का निधान और अव्यय बीज माना है- ‘‘एतन्नानावताराणां निधानं बीजमव्ययम्।’’ इस मत में आत्ममाया का अर्थ आत्मज्ञान है, क्योंकि प्रकृति का निर्देश पृथक आ चुका है। ‘‘मतिः क्रतुर्मनीषा माया’’ इत्यादि कोश में ‘मनीषा’ के अर्थ में ‘माया’ शब्द आया है। श्रीमद्रामानुजाचार्य का कहना है कि भगवान अपने अजत्व, अव्ययत्व, सर्वेश्वरत्वादि सम्पूर्ण ऐश्वर्यों को न छोड़ते हुए ही अपनी प्रकृति अर्थात स्वभाव में अवस्थित रहकर ही स्वेच्छा से अवतीर्ण होते हैं। ‘‘आदित्यवर्ण तमसः परस्तात्’’, ‘‘य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः’’ इत्यादि श्रुतियों ने भगवान के सगुण, साकार स्वरूप का स्पष्टीकरण किया है। इनके मत में भी ‘‘माया तु वयुनं ज्ञानम्’’ इत्यादि अभियुक्तियों से माया का अर्थ ज्ञान ही है। तथा च आत्म माया का अभिप्राय है आत्मसंकल्प। अतः भगवान आत्मसंकल्प से ही, अपने अपहतपाप्मत्वादि ऐश्वर्य स्वभाव को न छोड़ते हुए ही, देव-मनुष्यादिरूप से प्रतीत होते हैं। ‘‘अजायमानो बहुधा विजायते’’ इस श्रुति का भी अभिप्राय यही है कि भगवान इतर पुरुष साधारण जन्म से रहित होने पर भी स्वसंकल्प से देवादिरूप से जायमान होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज