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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
सभी व्रजांगनाएँ इस प्रकार श्रीवृन्दावन चन्द्र को ढूंढने में व्यग्र हैं। इनमें दो कान्तभाववती हैं, वे पहले से ही कुछ ईर्ष्या से प्रश्न करती हैं और अन्यान्यों में ईर्ष्या का उदय तब हुआ, जब उनके समक्ष प्राणेश्वरी के सामीप्य का अनुमान पुष्ट हुआ। पर इनका भी जीवन श्रीयुगल सरकार के दर्शन ही हैं। जब तरुओं से पता नहीं मिला, तब व्रजांगनाओं ने कुछ उड़ रहे और कुछ भूमिस्थ चकोरों को देखकर कल्पना की कि श्रीश्यामाश्याम अवश्य यहीं होंगे, क्योंकि ये चकोर उनके पादांगुली-दलस्थ नखमणि चन्द्र की ज्योत्स्ना का पान करने के लिये यहाँ मंडरा रहे हैं। चलो पूछें। परन्तु जब उनसे भी पता नहीं मिला, तब वे वहीं उड़ रहे भ्रमरों से पूछने लगीं। उन्होंने सोचा कि वृन्दावन के विविध पुष्पों में व्यासक्त न होकर जो ये यहाँ अन्तरिक्ष में उड़ रहे हैं, उसके सन्तर्पक सौगन्ध्य को पाकर ये अन्य पुष्पों को भूल गये हैं। उसी अष्टगन्ध को हरने के लिये यह गन्ध वाह (वायु) भी चल रहा है, चलो इन्हीं से पूछें। (अष्टगन्ध का वर्णन पहले हो चुका है।) इसके बाद ही व्रजांगनाओं को कोकिल देख पड़ी। वे उसी से अपने प्राणधन का पता पूछने लगीं। पूछते हुए उन्हें उसमें पुँस्कोकिल की भावना हो आयी। फिर तो ये उसे खरी-खोटी सुनान लगीं- ‘सखियों पुरुष निष्करुण होते हैं। यह भी श्रीश्यामसुन्दर ही की तरह हैं। जैसे काले कृष्ण कामिनियों को दुःख देते हैं, वैसे ही अपने कलकूजन से यह भी दुःख देता है। अपने वर्ण, व्यवहार सब तरह से यह उनके समान है, उनका सखा है।’ इतने ही में व्रजांगनाओं की दृष्टि चकवी पर पड़ जाती है और वे बड़ी आशा से उसी पूछने लगती हैं- ‘सखि चक्रवाकि! तुम विरह व्यथा को जानती हो, क्योंकि तुम स्वयं विरहिणी होती हो, विरह वेदना का तुम्हें परिचय है, सारस की स्त्री लक्ष्मणा को नहीं। सखि! हम आतुर हैं, हमें प्यारेमोहन से मिला दो।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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