भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
शक्ति शब्द से जैसे अचित् प्रकृति के अतिरिक्त पराप्रकृति, जीव आदि का भी ग्रहण होता है, वैसे ही भगवती शब्द से शुद्ध निर्गुण चिच्छक्ति का भी बोध होता है। इसीलिये उपासकों की उपास्य शक्ति या भगवती को केवल प्रकृति या माया न समझना चाहिये, किन्तु सच्चिदानन्दात्मिका भगवती ही उपास्य होती है। रात्रिसूक्त रात्रि देवता का प्रतिपादन करता है। रात्रि देवता दो हैं, एक जीवन सम्बन्धिनी, दूसरी ईश्वर सम्बन्धिनी। प्रथम का अनुभव सभी लोग करते हैं, जिसके सम्बन्ध से प्रतिदिन समस्त व्यवहार लुप्त हुआ करता है। ईश्वर रात्रि वह है, जिसमें ईश्वर का व्यवहार भी लुप्त होता है, उसी को महाप्रलय कालस्वरूप कहा जाता है। उस समय दूसरी कोई भी वस्तु नहीं रहती, केवल मायाशबलित ब्रह्म ही रहता है, उसे ही अव्यक्त भी कहा जाता है।
ब्रह्ममायात्मिका रात्रि की अधिष्ठात्री देवता ही भगवती भुवनेश्वरी है। ‘‘रात्रो व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभिः विश्वा’’ इत्यादि का साराश यह है कि ‘‘सर्वकारणभूता चिच्छक्ति भगवती पूर्वकल्पीय अनन्त जीवों के अपरिपक्व अत: फलानभिमुख सत्असत् कर्मों को देखकर फल प्रदान का समय न होने से ऐश्वर प्रपंच को अपने में ही प्रलीन कर लेती है। पश्चात् वही रात्रिरूपा चिच्छक्ति फल प्रदान का समय आने पर महदादि द्वारा प्रपंच का निर्माण करके असांकर्येण तत्तत्प्राणियों के कर्मों को देखती है। फिर उन कर्मों का फल प्रदान करती है। इससे रात्रिरूपा भगवती की सर्वज्ञता स्पष्ट है। वह अमर्त्या देवी अन्तरिक्षोपलक्षित समस्त विश्व को अपने स्वरूप से पूरित कर देती है। नीची वस्तु लता-गुल्मादि और उच्छ्रित वृक्षादि को भी अधिष्ठान चैतन्य से पूरित कर देती है और वही परा चिद्रूपा देवी स्वाकार-वृत्ति-प्रतिबिम्बितस्वरूप चैतन्य ज्योति से तम उपलक्षित सम्पूर्ण प्रपंच को बाधित कर देती है। आती हुई देवनशील रात्रि चिच्छक्ति प्रकाशस्वरूपा उषा (प्रातःकाल) को अर्थात् अविद्या की आवरण शक्ति को तिरस्कृत करती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देवी पुराण
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