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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
श्रीव्रजदेवियों ने पहले एक-एक वृक्ष, लता, पशु, पक्षियों से श्रीश्यामसुन्दर की स्थिति पूछी। अन्त में उन्होंने समस्त तरुओं से एक साथ पूछा। वे तरु सुमन फलभार से विनम्र हो रहे थे, भूमि का स्पर्श कर रहे थे, उनकी शाखा-उपशाखाएँ झुकी हुई थीं। तरुओं की उस मुद्रा से गोपांगनाओं ने निश्चय किया कि वे श्रीनन्दनन्दन को उपहार सहित प्रणाम कर रहे हैं। साथ ही उनके मन में इस कल्पना ने भी स्थान पाया कि श्रीमोहन यहीं हैं, कहीं गये नहीं, क्योंकि वे तरुवर प्रणामार्थ अभी झुके ही हुए हैं और श्रीप्रभु ने अभी इनके प्रणाम का उत्तर नहीं दिया, इनका अभी अभिनन्दन नहीं किया, अत: ये झुके ही हैं। व्रजदेवियाँ इस स्थिति में उनसे प्रश्न करती हैं-
‘हे तरुओ! वे श्रीबलराम के भैया, जिन्होंने एक हाथ में कमल धारण कर रखा है और दूसरा हाथ अपनी प्रिया के कन्धे पर रखा है तथा तुलसी की सुगन्धि के लोभ से कितने ही मदान्ध भौंरे जिनका पीछा कर रहे हैं, क्या प्रेमपूर्वक तुम्हारी ओर देखकर उन्होंने तुम्हारे प्रणाम का अभिनन्दन किया? क्या तुम्हारे फल-पुष्प के उपहार की ओर दृष्टि भी डाली? हम तो समझती हैं नहीं, क्योंकि उन्हें अपनी प्रिया की ललित गति के अवलोकन से ही अवकाश कहाँ?’ (इसी के पोषणार्थ श्रीकृष्ण का साक्षात् नाम न लेकर व्रजांगनाओं ने ‘रामानुजः’ नाम से यहाँ उनका संकेत किया है) ‘तरुओ! वारुणीपान करके प्रमत्त रहने वाले दाऊ जी के ये छोटे भाई हैं, वे वारुणीपान से मत्त हैं तो ये श्रीवृषभानुनन्दिनी की रूप-लावण्य वारुणी का पान करके प्रमत्त हैं। तरुओ! इनके पीछे जो ये मतवाले भौंरे भागे आ रहे हैं, इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि इनके साथी भी इन्हीं की तरह प्रमत्त हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भा., स्कं. 10, अ. 30; 12)
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