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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
इसके अतिरिक्त जो श्रीवृषभानुनन्दिनी की शुद्ध प्रेष्ठतम सखी है, उनके वे ही भाव हैं कि हे कृष्णसार सती, तुम धन्य हो, तुमने युगल सरकार के दर्शन किये हैं, उनके सम्मिलित स्वरूप दर्शन से तुम्हारे इन नेत्रों की सुनिर्वृति हुई है- परमानन्द की प्राप्ति हुई है। तुम प्रेष्ठ सखी हो, श्रीवृषभानुनन्दिनी की अन्तरंगा हो। तुम्हारे नेत्रों की प्रसन्नता से मालूम पड़ता है, अवश्य तुमने उन श्रीराधामाधव के यहाँ कहीं अभी दर्शन किये हैं। सखि, हम तुम्हारी बड़ी कृतज्ञ होंगी, हमको भी उनका पता दो। प्रकृति पद्यान्तर्गत ‘कान्ता’ पद की व्युत्पत्ति की जाती है कि ‘कस्य सुखस्य अन्तः सिद्धान्तो यस्यां सा’ अर्थात जिसमें अनुरागात्मक या आनन्दात्मक सुख का अन्त है वह ‘कान्ता’ है। तात्पर्य यह कि व्रजेन्द्रनन्दिनी श्रीराधा ही सुख सिद्धान्तरूपा है। सुख क्या है? तो यदि वादि-प्रतिवादीनिर्णीत सिद्धान्त ही सुख हे। ब्रह्मानन्द सुख है अथवा स्वर्गादि सुख है, इसका अन्तिम सिद्धान्त श्रीवृषभानुनन्दिनी ही हैं, परमानन्द में रहने वाला माधुर्यसार सर्वस्व वही है। अथवा ‘कस्य सुखस्य अन्तःपर्यवसानम् यस्यां सा कान्तां’ अर्थात सुख की बढ़ते-बढ़ते अन्तिमावस्था पराकाष्ठा जहाँ हो, वह तत्त्व कान्ता है और वही श्रीराधा तत्त्व है। श्रीराधास्वामी मत वाले कहते हैं कि ‘वेदिक, पौराणिक लोगों को केवल 14 लोक मिले, पर हमारे स्वामी 18 वें लोक में विराजमान हैं।’ कल्पना करने में क्या लगता है? एक राजा को कहानी का बड़ा शौक था, वह ऐसी कहानी सुनना चाहता था, जिसका अन्त न हो और इनाम भी उसे देना चाहता था, जो बे-अन्त कहानी कहे। बेचारे सब परेशान होकर चले जाते थे, आखिर कितनी लम्बी कहानी होती। एक ऐसा कहानीकार उसे मिल गया। उसने कहना शुरू किया- ‘एक बड़ा भारी जंगल था। उसमें एक बहुत बड़ा वृक्ष था, उसमें बड़े-बड़े असंख्य पत्र थे, एक-एक पत्र पर कई-कई पक्षी रहते थे, उनमें से एक उड़ा फुर्र, दूसरा उड़ा फुर्र। राजा जब तक पूछता- ‘फिर क्या हुआ?’ तो कहानीकार कह देता ‘फुर्र’। इस तरह और ‘फुर्र’ के चक्कर में बहुत समय निकल गया। राजा ने खीजकर कहा- ‘आगे क्या हुआ?’ कहानीकार ने कहा- ‘हुजूर, सब पक्षी उड़ लें, तब तो आगे कहानी चले।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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