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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
वे ‘व्रजेशसुतयोः’ में द्विवचन भाव गुप्ति के लिये देती हैं, जिससे बलराम और कृष्ण दोनों का ग्रहण हो। परन्तु सहसा ‘वक्त्रम्’ एकवचन ही निकल जाता है, क्योंकि उनका तो अनुराग श्रीश्यामसुन्दर में ही है। पर कहीं उनकी देवरानी, जेठानी के कान में यह शब्द न पड़ जायँ, इसलिये द्विवचन से छिपाती हैं। वे व्रज की नारियों की प्रकृति से परिचित हैं, वे खूब जानती हैं कि “बलिहारि करो व्रज को बसिबो जहाँ पानी में आग लगावें लुगाई।’ श्रीश्यामसुन्दर के प्रेम को वे छिपाती हैं। कोई पूछे तो वे चट से उत्तर दे दें कि ‘हम तो व्रजपाल के प्रति राजभक्ति प्रदर्शन कर रही हैं।’ इन सब भावों से ‘सुतयोः’ द्विवचन बोलती हैं। परन्तु जब तक श्रीश्यामसुन्दर का मुखचन्द्र सामने नहीं, तभी तक यह बनावट छिपी है और भाव महासागर शान्त है। पूर्णचन्द्र के दर्शन होते ही सागर की मर्यादा भंग हो जाती है। यह प्राकृत पूर्णचन्द्र जल समुद्र के हृदय से उदित हुआ है और वह अप्राकृत श्रीकृष्णचन्द्र इसी व्रजांगनाओं या श्रीवृषभानुनन्दिनी के हृदय महाभाव समुद्र से आविर्भूत होता है। महाभाव समुद्र जब तक शान्त रहा, तब तक सर्वविधगोपन, सर्वविध विवेचन, पर ज्यों ही श्रीश्याम मुखचन्द्र का ध्यान आया कि बस भाव समुद्र उमड़ पड़ा- छिपाने की सब चालें भूल गयीं, ‘वक्त्रम्’ एक वचन मुख से निकल पड़ा। जब तक भावसमुद्र में ज्वार-भाटा नहीं आया, तब तक लोक-वेद सबकी मर्यादा सुरक्षित रही, फिर नहीं। (व्रजेशसुतयोर्वक्त्रं यैर्निपीतम्, अक्षण्वताँ फलमिदमेव) वे ‘दर्शन’ नहीं कहतीं, क्योंकि यह मोटी बात है, स्थूलदर्शिता है। यहाँ तो कहा ‘निपीतम्’ जिसका सुधासमुद्र का भी समवगाहन करना है। इतने कुशल, सजीव नेत्रपुटों के सामने सुवर्ण, हीरक आदि के पात्र तुच्छ हैं। ये इसी पूर्वानुभव से हरिणी के प्रति “तन्वन्दृशां सखि सनिर्वृतिमच्युतो वः”कर रही है। ‘अनुरक्तकटाक्षमोक्षम्’ में दो भाव हैं- यह मुख चन्द्र अनुरागियों के कटाक्षमोक्ष का स्थान है अथवा अनुरक्तों की ओर सानुराग कटाक्षमोक्ष का स्थान है अथवा अनुरक्तों की ओर सानुराग कटाक्षमोक्षण की क्रिया जिसमें हो रही है, वह है। अथवा उस अवसर पर गोपांगनाएँ कहती हैं- ‘सखि! दर्शन करने कैसे जायँ, कुललज्जा मुखचन्द्र का दर्शन नहीं करने देती।’ दूसरी कहती है- ‘चलो, किसी निकुंज में छिपकर दर्शन करेंगी।’ इस पर भी एक तीसरी का तर्क उठता है- ‘क्या वे मोहन अपने भृकुटि को दण्ड तानकर तुम्हारी लज्जा को कहीं फेंक न देंगे?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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