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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
ऐसी सखियों को स्वयं सम्मिलन से उतना आनन्द नहीं होता, जितना श्रीलाड़की-लाल, गौर-श्याम के सम्मिलित दर्शन करने से होता है। इस कोटि की सखियाँ श्रीराधाजी का दर्शन करके अनन्तकोटि चन्द्र, कन्दर्प और कमल को उनके श्रीअंग पर, उनके आह्लाद, सौन्दर्य और कोमलता के नाम पर वार देती हैं। इसके अतिरिक्त श्रीराधाकृष्ण के सम्मिलित दर्शन की महिमा तो इससे भी परे है, उस आनन्द को स्वयं वे भी नहीं प्राप्त कर सकते। उसे तो यह परमान्तरंग और परम भाग्यवती सखियाँ ही प्राप्त कर सकती हैं। कभी-कभी लीलावश श्रीश्यामसुन्दर श्रीराधा जी से कहते हैं- ‘आपके दर्शन का सौभाग्य तो मुझे ही प्राप्त है।’ इस पर श्रीजी भी कहती हैं- ‘आपके दर्शन का सौभाग्य भी मुझे ही प्राप्त है।’ फिर श्रीराधाजी कहती हैं - ‘गौर सौन्दर्य के दर्शन का सुख मुझे मिलता है। परन्तु परस्पर सम्मिलित सौन्दर्य-दर्शन के आनन्द का सौभाग्य तो इन सखियों को ही समुपलब्ध है। उस सुख को तो ये ही लूटती हैं, ये बड़ी भाग्यवती हैं। इनका तो हमसे भी अधिक गौरव है।’ उस आनन्द का अनुभव करने वाली ये सखियाँ व्रजांगनाएँ धरित्री से पूछती हैं- “किन्ते कृतं क्षिति तपो बत केशवांघ्रिस्पर्शोत्सवोत्पुलकितांगरुहैर्विभासि।” अर्थात भूमिगत लतादि से भूमि के रोमांच और भमिगत निर्झरों से भूमि के आनन्दाश्रुओं की कल्पना करने वाली वे श्रीराधा-माधव के उस अनन्त रूप राशि का आस्वादन करने वाली वजांगनाएँ उसी आनन्द की कल्पना करके धरित्री से पूछती हैं- “क्या तुम उस गौर श्याम सम्मिलित दर्शन-स्पर्श रस माधुरी का पान प्राप्त हुआ है, जिससे तू लता-निर्झर-रूप से उत्पुलकित और साश्रु हो रही है? क्योंकि इतना सर्वातिशायी आनन्द तो उस गौर श्याम तेजःसम्मिलित युगल मूर्ति श्रीराधा-कृष्ण के दर्शन से ही सम्भव है।” हाँ, तो ‘केशव’ पद से यहाँ श्रीवृषभानुनन्दिनी का भी संकेत है- “प्रशस्ताः केशा यस्याः सा वृषभानुजा।” यहाँ प्रिया-प्रियतम का विहार वर्णन है। यह अभी नहीं बतलाया गया है कि भगवान श्रीकृष्ण व्रजांगनाओं को छोड़कर उनके बीच से जो अन्तर्हित हुए हैं, वह क्या अकेले ही अन्तर्हित हुए हैं अथवा श्रीवृषभानुनन्दिनी के साथ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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