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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
यही कहा है-
अर्थात उनकी कथा मत छेड़ो, यदि इस सखी को थोड़ा भी सुख-शान्ति देना चाहती हो। जैसे भी बने इसके मन से मोहन को भुलवा दो, उसकी कथा मत चलाओ। उसके आवेश में इसकी व्रीडा विलुप्त हो जाती है, धैर्य का बाँध टूट जाता है- “व्रीडां विलोपयति मुंचति धैर्यम्।” बस, उस विरहिणी के लिये आपकी कथा ही मरण है, जले में नमक छिड़कना है। जैसे तैलपूर्ण महाकटाह भट्टे पर चढ़ा हो, नीचे खूब आग धधक रही हो, तैल खूब परितप्त हो चुका हो और 2-3 सेर महाविष भी मिला हो, उसमें पड़ा एक कीट कितना जीयेगा (तप्ते कटाहे यथा जीवनम)। हम विरहिणी व्रजांगनाओं के जीवन के लिये आपकी कथा वही सुतप्त तैलपूर्ण कटाह-पात के जैसी है। फिर कथा सुनने से एक गहरी वेदना, सन्ताप यह होता है कि जो हमारे अन्तःकरण में बसा है, हमारे अंग-अंग से सम्मिलित रहता है हाय, हम आज उसकी कथामात्र सुन रही हैं, क्या आज हमें उसका वियोग है, समालिंगन नहीं प्राप्त है? उस अवसर पर उसकी कथा, केवल कथा, वही काम करती है, जो तप्त तैलपूर्ण महा-कटाह में जल की बूंदें- “तप्ते कटाहे जीवनम्-जलमिव।” उस समय जैसे कटाह में आग भभक उठती है, हमारे हृदय में वैसे ही प्रिय-विरह-वैश्वानर की महा ज्वाला प्रदीप्त हो उठती है। यदि कोई पूछे कि इतनी दुःखद मरणप्रद यह कथा है, तो इसको लोग क्यों गाते हैं? इस पर कहती हैं- इसे गाते कौन हैं? कवि न! कवि क्या नहीं कहते? - “कवयः किन्न जलपन्ति।” वे तो भैंस की भी तारीफ करते हैं। फिर यह कथा “श्रवणमात्रे मंगलम्” है, किन्तु “परिणामे दुःखदं अमंगलम्” है। जिसने इस कथा को सुना वह बाबा बनकर भीख माँगता है। ‘राधेश्याम, नारायणहरि’ कहकर गली-गली टुकड़ा माँगता फिरता है। प्रश्न होगा - ऐसी चीज का दुनिया में विस्तार कैसे हो गया? तो उत्तर यही है कि प्रमादी धनियों ने कष्ट देने के लिये उसे दुनिया में फैला दिया है- ‘श्रीमदाततम्।’ किंच जो उस कथा को गाते फिरते हैं, उनके लिये हम क्या कहें, वे तो सर्वस्वनाशक हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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