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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
पहले प्रियाल की बड़ी स्तुति हुई। जब देखा कि यह जरा भी नहीं पसीजता, तब कहने लगीं - “प्रियं न लातीति प्रियालः (प्रिय-अ) नञ् (लः) प्रियप्राप्तौ प्रतिबन्धकः।” जो प्रिय का पता न दे, उसके सम्मिलन में व्यवधान उपस्थित करे, वह पापी प्रायश्चित्ती प्रियाल है। इस तरह प्रियाल पर बहुत कुछ कहकर अब गोपांगनाओं की दृष्टि ‘पनस’ पर घूमी। कहने लगीं- “सखियों, आओ इस पनस (कटहल) से पूछें, यह फली है, अतः विनम्र है, इसका फल महाफल होता है। यह हमारे परिश्रम के महाफल श्रीकृष्ण को अवश्य बतलायेगा। देखो, इसका नाम कितना सुन्दन है- ‘पनस’। यह ‘पन गतौ’ और ‘शो तनूकरणे’ से निर्मित हुआ है। इसकी बड़ी सार्थक व्युत्पत्ति है - “प्रेयसीः परित्यज्य पनतः-गच्छतः श्रीश्यामस्य गतिं स्यति-तनूकरोतीति पनसः।” यह अपनी दिव्यशक्ति से मोहन की गति को क्षीण कर देता है, जिससे वे हम लोगों को मिल जायँ और भी यह व्युत्पत्ति इस नाम की है “पातीति पः, न स्यतीति नसः” अर्थात् श्रीश्याम के दर्शन दिलाकर पालन करने वाला यह है, सन्ताप से क्षीण करने वाला नहीं।” इस प्रकार जब बहुत स्तुति आदि करने पर भी कटहल हिला तक नहीं, तब उन्हें वह बड़ा ही दुष्ट दीख पड़ा और तुरन्त उसके नाम की व्युत्पत्ति, उसके गुण निन्दा में बदल गये। कहने लगीं- “पनम प्राप्ति स्यति खण्डयतीति पनसः।” प्रिय की प्राप्ति में अवरोध पहुँचाने वाला यह कण्टकी वृक्ष है। बाहर तो उसमें काँटे हैं ही, यह अन्तर में भी ‘कण्टक’ रखता है। पनस को छोड़कर आगे चलते ही व्रजांगनाओं के सामने असन-शाल का वृक्ष आया। उस खूब प्रलम्ब, सुन्दर वृक्ष को देखकर गोपांगनाओं को उससे पूछन का मन हो आया। कहने लगीं- “यह असन हरिभक्त है, देखो, इसके नाम के पहले अकार है, यह वासुदेव का वाचक है। “अम् - वासुदेवं सनतीति असनः।” यह भक्त है, साधु है, “साधु से होइ न कारज हानी।” इससे पूछो यह बतलायेगा।” वैसे भी श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द की प्राप्ति के लिये भागवत ही प्रष्टव्य होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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