भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
अब यदि दूसरे अनुमान के सम्बन्ध में कहा जाय कि वेदान्ती ईश्वर को मानते हैं, इसलिये उभय वादिसम्मत होने के कारण तदतिरिक्त न होने से ईश्वर से अर्थान्तर न हो, पर ईश्वर न मानने वाले मीमांसकों को तो ईश्वर से अर्थान्तरता होती है, तो यह ठीक नहीं, क्योंकि जन्यभाव से जन्य ऐसा दूसरा विशेषण देकर भाट्ट के मत में अर्थान्तर का परिहार किया जा सकता है। यदि कहा जाय कि ऐसी स्थिति में नित्य पदार्थों में शक्ति का समर्थन न किया जा सकेगा, तो यह भी उचित नही, क्योंकि अनित्य पदार्थों में शक्ति सिद्ध हो जाने पर उसी दृष्टान्त से नित्य पदार्थों में भी शक्ति की सिद्धि हो सकती है। शक्ति एक ही नहीं अपितु प्रत्येक पदार्थ में भिन्न-भिन्न है। जैसे कि अवयवावयवि में अनित्य होने पर भी जल, तेज आदि के परमाणुओं में रूप जैसे ही नित्य-अनित्य रूप से शक्ति भी दो प्रकार की मानने में कोई आपत्ति नहीं है। आधेय शक्ति को भी अप्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ‘व्रीहीन् प्रोक्षति’ इत्यादि द्वितीया श्रुतियों से व्रीहि आदि में अतीन्द्रिय शक्ति का अस्तित्व सिद्ध होता है। चेतन धर्म अदृष्ट का अचेतन व्रीहि आदि में रहना सम्भव न होने से व्रीह्यादि - विषयक क्रिया जन्यमात्र होने से ही तदीयत्व की प्रतिपत्ति हो सकती है, अतः वहाँ द्वितीया श्रुति गौण है, ऐसा जो कहा गया था, वह भी ठीक नहीं, क्योंकि धर्माधर्म रूप अदृष्ट से अतिरिक्त ही कोई एक अतिशय मान्य है जो तण्डुल, पिष्ट पुराडाशादि परम्परा से प्रधानापूर्व उत्पन्न करता है। इसे न मानें, अर्थात व्रीह्यादि स्वरूप से ही यदि उस प्रधानापूर्व को उत्पन्न कर सकते, तो प्रोक्षणादि विधान व्यर्थ हो जायगा। दृष्ट फल न दिखलायी पड़ने पर अदृष्ट फल की कल्पना करनी पड़ती है और मुख्य अर्थ सम्भव होने पर लक्षणा करने का अवकाश नहीं रहता। इस प्रकार लीलावतीकार के दिये हुए दूषण का भी निराकरण किया गया। शक्ति के अस्तित्व में उपर्युक्त रीति से आगम, अर्थापत्ति और अनुमानरूप प्रमाणों का संक्षिप्त दिग्दर्शन करने से यह नही कहा जा सकता कि किसी प्रमाण से शक्ति सिद्ध नहीं होती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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