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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
तरंग में जल की तरह अन्य व्रजांगनाजन की स्थिति है और जल में मधुरिमा स्थानीय श्रीरासेश्वरी है। यह अत्यन्त अन्तरंगा है। इस प्रकार जलस्थानीय श्रीकृष्ण में मधुरिमा स्थानीय अत्यन्त अन्तरंगता को प्राप्त करके भी श्रीवृषभानुदुलारी को, महारंक के लिये चिन्तामणि प्राप्ति की तरह श्री कृष्ण प्राप्ति में अति दुर्लभता की प्रतीति हो रही है। ‘गोपालचम्पू’ में पूर्णमासी पुरोहितानी और वृन्दादेवी की प्रेरणा से जब यह स्थिति बना दी गयी है, तब गर्गाचार्य आये हैं। ये सब भाव उत्कण्ठा को उत्कट बनाने के लिये हैं, इसीलिये श्रीजीव गोस्वामी ने परकीयात्व का पोषण किया है। परन्तु चम्पूकार ने स्वकीयात्व मानते हुए इन भावों की स्थापना की है। वैसे व्रज में कोई भी ऐसा नहीं जो श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम न समझे, सभी उनका आनुरूप चाहते थे। गोप बालाओं के माता-पिता आदि सभी श्रीश्यामसुन्दर के साथ अपनी पुत्रियों का विवाह करना चाहते थे। इसमें रसाक्रान्ति की तरह, मूर्तिमान श्रृंगार के प्रादुर्भाव की तरह, व्रजसीमन्तिनी तथा व्रजबालाओं का श्रीकृष्ण से मिलते रहने पर भी सम्म्लिनोत्कण्ठा का उदय हुआ रहता था। एक समय गोपियों के पिताओं ने श्रीगर्ग जी से श्रीश्यामसुन्दर के साथ अपनी पुत्रियों के विवाह के विषय में पूछा - (यह प्रकट लीला है, श्रीशुकदेवजी ने प्रकट-अप्रकट दोनों लीलाओं का वर्णन किया है)। उत्तर में श्रीगर्ग जी ने कहा- “आप लोगों का यह भाव बहुत उत्तम है, परन्तु यदि आपकी कन्याओं का विवाह श्रीकृष्ण के साथ हो गया तो आप सबका श्रीकृष्ण के साथ वियोग हो जायगा उनका दर्शन दुर्लभ हो जायगा।” तब से सब सावधान हो गये और गोपियों के लिये श्रीकृष्णदर्शन तक में रुकावट उत्पन्न हो गयी। यह सब हुआ केवल श्रीकृष्ण के वियोग-भय से, किसी द्वेष बुद्धि से नहीं। इस प्रसंग में पूर्णमासी ने वृन्दा से पूछा कि ‘जब मन्त्रों में भी श्रीकृष्ण का ‘गोपीजनवल्लभ नाम’ है, तब श्रीकृष्ण के साथ गोपियों के विवाह क्यों रोके गये? और दूसरी जगह क्यों हुए? इस पर वृन्दा ने यही कहा कि - “यह सब दुःख स्वप्नमात्र हैं। वास्तव में गोपांगनाओं का सम्बन्ध श्रीकृष्ण को छोड़कर अन्यत्र हुआ ही नहीं। इसलिये “मन्यमानाः स्वपार्श्वस्थान् स्वान्-स्वान् दारान् व्रजौकसः”[1] और “न जातु व्रजदेवीनां पतिभिः सह संगमः” आदि कहा गया है। यत्र-तत्र जो गोपांगनाओं की पत्यन्तर-प्रतीति है, वह सब मायामय है। उन-उन व्रजदेवियों का मायामय पतियों के साथ ही संगम होता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भाग. 10।33।38)
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