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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
वृक्षों में, लताओं में रोमावली उनके स्पर्श बिना नहीं हो सकती। सखि मालति, हमें इन लक्षणों से पता लग गया, वे तुम्हारे पास होकर गये हैं। इतना ही नहीं, तुम दासी को तत्रापि पुष्पिणी (रजस्वला) को स्पर्श करते हुए गये हैं। बतलाओ सखि! किस तरफ गये हैं?’ यों परिहास भी करती हैं, पूछती भी हैं। व्रजांगनाओं को श्रीकृष्ण के वियोग में धैर्य नहीं है। वे चाहती हैं- किसी प्रकार से जल्दी पता मिले। अत: एक साथ ही कई से पूछ जाती हैं- “मल्लिके, जातियूथिके ...” इससे उनका अधैर्य द्योतन होता है। एक-एक से प्रश्न करना, उत्तर सुनना धैर्य का काम है। पर वे चाहती हैं- ‘कोई भी दयावती जल्दी बतला दे। लताओं की ओर से मानो प्रश्न है- ‘हे व्रजांगनाओं! हम तो जड़ हैं, प्रेमोन्माद में तुम हमसे प्रश्न कर रही हो।’ इस पर व्रजांगना कहती हैं- ‘तुम झूठ बोलती हो, रहस्य को छिपाती हो, परन्तु तुम्हारा यह पुष्प विकास, यह मकरन्दस्राव, तुम्हार मानस प्रफुल्लता और आनन्दाश्रु को स्फुट ही बतला रहा है। यह सब श्रीश्यामसुन्दर सम्पर्क को बिना पाये नहीं हो सकता। यह चमत्कार उसी में है। हम लोग, हे लताओं! यह सब अनुभव कर चुकी हैं। यह कल्पना अपने विषय में मत करो कि हम जड़ हैं, तुम लोग जड़ नहीं, बड़ी चतुर हो। बतलाओ, श्रीश्यामबिहारी किस ओर गये हैं?’ श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द के ऐश्वर्य माधुर्य पर एक दृष्टि डालने से सहज ही उनके सम्पर्क का महत्त्व ज्ञात हो जायगा। श्रीभगवान् के ऐश्वर्य की तुलना अतुलनीय है। कहा है- “स्वयन्तु ..किरीटकोटीडितपादपीठः ....” स्वयं अद्भुत ऐश्वर्यवान् हैं। वह भी ऐसे कि किसी के साथ समानता ही नहीं बनती असाम्यातिशय है- “न तत्समश्चाभ्यधिकः” उनके जैसा तीनों लोक में कोई नहीं। स्थूल, सूक्ष्म और कारण जगत के वे महान अधिपति हैं और हैं- “स्वाराज्यलक्ष्म्याप्तसमस्तकामः।” (स्वेनैव राजते दीप्यते) किसी दूसरे के प्रकाश से नहीं, अपने ही प्रकाश से स्वतः प्रकाश से प्रकाशमान तथा उसी से पूर्णकाम। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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