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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
अतः आशय से उठकर मिलीं अर्थात आशयोपलक्षित पंचकोष के आवरण को हटाकर श्रीकृष्ण परमात्मा से मिलीं। परन्तु श्रीव्रजदेवियों के यहाँ इन कोषों की चर्चा नहीं, वे तो नवघन श्याम मुरलीमनोहर मनमोहन की निरन्तर चिन्ता से तदात्मिका-रसात्मिका हो रही हैं और श्रीवृषभानुनन्दिनी उस रस की मधुरिमास्थानीया हैं। इस प्रसंग पर श्रीनन्ददास जी ने कहा है- ‘तरंगन वारि ज्यों’ श्रीउद्धव भगवान कृष्ण के सन्देश को गोकुल में व्रजबालाओं के निकट पहुँचाकर जब वापस आये, तब श्याम के विप्रयोग में व्याकुल उन गोपदेवियों का उन्होंने श्रीकृष्ण के सामने दयनीय चित्र खींचा और कहा- वे आपके बिना मरी जा रही हैं और आप यहाँ मौज ले रहे हो। उत्तर में श्रीभगवान ने सहास स्वर में कहा-उद्धव! व्रज में इतने दिन रहकर उन व्रजांगनाओं से क्या सीख आये हो? और तब उन्होंने दिखाया ‘तरंग ज्यों।’ श्रीगोपांगनाओं के रोम-रोम में, प्राण-प्राण में श्यामसुन्दर विराजमान हैं। श्रीउद्धव यह देखकर और चकित रह गये। ऐसी स्थिति में गोपियों और श्रीकृष्ण में छिपाव ही क्या? लोग व्यर्थ मोटी शंका करते हैं- श्रीकृष्ण ने गोपांगनाओं को नग्न कराया, हाथ बाँधकर बुलाया, चीरहरण लीला की। पर क्या वे नग्न होकर जल में नहीं नहाई थीं? क्या वे कृष्ण परमात्मा जल से भी बहिरंग हैं? वस्तु-स्थिति तो यह है कि-
सभी वस्तुओं का भावार्थ परिणामी में स्थित होता है, अर्थात सभी वस्तुएँ अपने कारणरूप में स्थित होती हैं। उस कारण के भी कारण भगवान कृष्ण हैं। उससे भिन्न और है ही क्या वस्तु, जिसका निरूपण किया जाय? अन्त में सतत्त्व श्रीकृष्ण ही ठहरते हैं। इतना भीतरी श्रीकृष्ण तत्त्व है। उसके समक्ष क्या कोई वस्त्र-परिधान करेगा, हाँ, तो प्रकृत में,जल में, तरंग की तरह गोपांगना हैं। वे एक तरह से जल ही हैं। परन्तु जलगत मधुरिमा की अपेक्षा तरंग बहिरंग हैं। मधुरिमा अन्तरंग है, वह श्रीराधा हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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