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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
वहाँ के माधुर्य-साम्राज्य में इसका प्रवेश भी कहाँ? इसलिये वहाँ तो भगवान श्रीराधारानी की ‘वेणुगूंथन’ सेवा करके उनका मान मनायेंगे। इस पक्ष में ‘केशव’ की व्युत्पत्ति होगी- ‘केशान वयते संस्करोतीति केशवः।’ भगवान अपनी योगमाया से ही अन्तर्हित हुए। श्रीव्रजदेवियों के हृदय में वे अकेले नहीं, किन्तु अपनी लीला के साथ अन्तर्निहित हुए। अतः लीलादेवी श्रीव्रजांगनाओं के व्रजांगना-मानस में प्रविष्ट थीं, अतः वहीं से प्रकट होने लगीं। उसी को कहते हैं-
कायिकी, वाचिनिकी, मानसिकी तीन प्रकार की लीलाएँ साधारणतया मानी गयी हैं। उनमें पहले कायिकी ‘गति’ का वर्णन करते हैं, श्रीव्रजांगना विहार करते समय गति का अनुभव कर रही थीं। हंस, गज और सिंह-सी गति उनके मानस में उदित हुई। जब उनके मन में यह भावना हुई कि श्रीकृष्ण प्राणधन सम्मिलन के लिये पधार रहे हैं, तब इन गतियों का स्फुरण हुआ। ‘गत्यानुराग’ में गति, आ, अनुराग ऐसा सन्धि विच्छेद करना चाहिये। ‘आ अनुराग’ का आशय है ‘प्रेम को सब ओर से बटोरकर’ वे प्रियतम श्रीकृष्ण के स्मितादि का अनुभव करने लगीं। ऐसे एकान्त गाढ़ अनुराग से श्रीगोपांगनाएँ श्यामसुन्दर के ‘स्मित’ आदि का अनुध्यान या ग्रहण करने लगीं। स्मित मन्दहास का नाम है, यह चित्तलोभक है। यह अद्भुत विभ्रम है, माया है। जिससे गोपांगना न तो अत्यन्त बहिर्मुख ही रहें और न अत्यन्त अन्तर्मुख ही, क्योंकि बहिर्मुखता से ताप और अत्यन्त अन्तर्मुखता से साक्षात्कार होगा, जो अभी अभीष्ट नहीं। अतः मध्यम स्थिति में रखा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भाग. 10 स्कन्ध, 30 अ., 2 श्लोक
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