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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
ये सब व्रजांगनाओं के प्रेम-समुद्र की तरंगें हैं। कहीं कहती हैं- “प्रीति की रीति रंगीलोई जाने।” और अपना सर्वस्व न्योछावर करती हैं और कहीं ऐसा दोषानुसन्धान करती हैं कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। एक ओर दोषानुसन्धान प्रसंग है-एक विरहतप्ता व्रजबाला कहती है-“सखि, इन्होंने कभी किसी का भला नहीं किया। जन्म से ही तो ‘पूतना-सुपयः-पानस’ बेचारी पूतना को-स्त्री को-समाप्त कर दिया। सखि! कालों की यही करतूतें हैं।” “काले सबहिं वुरे..................। हम अब काले से बिल्कुल अनुराग न करेंगी। जब उनमें ही प्रेम नहीं, तब हम क्यों उनसे प्रेम करें?” कभी-कभी तो काले का इतना निषेध कि “अब काले वस्त्र और आभूषण तक न पहनेंगी। कभी तो यह भाव, यह तरंग कि “सखि हौं श्याम रंग रंगी” सब चीज काली। नील निचोल, ओढ़नी, लहँगा, सब काले, यहाँ तक कि हाथ आदि के गहने भी काले इन्द्रनील मणि के। पर जब दोषानुसन्धान का प्रसंग उपस्थित हुआ, तब “एक भी काली चीज पास में न रखेंगी।” एक चतुर सखी ने बीच में मीठी चुटकी लेते हुए पूछा- “सखि! हमने माना, इन काले वस्त्रालंकारों को तुम अवश्य फेंक दोगी, पर यह तो बताओं इन काले केशों का क्या करोगी?” उत्तर मिला, और बड़ा भावगम्भीर उत्तर मिला- “.......धूलिर्धृता मस्तके” सखि, इन केशों में मिट्टी पोत लेंगी।” दोषानुसन्धान के प्रसंग में जो पद्य “मृगयुरिव कपीन्द्रम्” पहले कहा, उसी के आगे एक और वैसा ही पद्य है-
अर्थात सखि, उन श्यामसुन्दर के द्वारा अनुष्ठित, सुधा बिन्दु के समान कानो को अति मधुर लगने वाली लीलाओं को जिन्होंने एक बार भी सुन लिया, उनके द्वन्द्व धर्म-सुख दुःखादि- जो गृहस्थादि में हुआ करते हैं, काँप गये। अर्थात इस हमारे आश्रित पुरुष ने ऐसी चीज सुन ली, जो अब जंगलों में मारा-मारा फिरेगा। यह समझकर दुःखादि भी दुःख से मानो कम्पित हो गये। यों कृष्णलीला के श्रोता पुरुष घर-घाट कहीं के नहीं रहे, अत: विनष्ट हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भागवत, स्कंद दशमा, अध्याय 47, श्लोक्क 18)
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