भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यहाँ ‘मा विद्विषावहै’ इस पद से जो द्वेष निवृत्ति के लिये प्रार्थना की गयी है यह गुरु-शिष्य में द्वेष की सम्भावना होने पर ही उत्पन्न हो सकती है। संसार में जितना भी लौकिक-वैदिक व्यवहार है वह माया के ही आश्रय से होता है। अतः सभी जगह राग-द्वेषादि की सम्भावना हो सकती है। किन्तु यदि तुम देवताओं का आप्यायन करोगे तो तुम्हारा इन्द्रियग्राम सबल और सतेज होगा। तभी तुम उसके द्वारा सम्यक् प्रकार से गुरुसेवा कर सकोगे और उनके किये हुए तिरस्कारादि को सहन कर सकोगे। इस प्रकार अपरिपक्व व्रजांगनाओं और अपरिपक्व जीवों के लिये भगवान ने यह सत्पुरुषों के समाश्रयणपूर्वक स्वधर्म-पालन का आदेश किया है। जो लोग अपने कर्तव्य कर्म का अनुष्ठान करते हुए सद्गुरु की शरण में रहने से साधन सम्पन्न हो गये हैं, जिनकी सारी उच्छृंखल प्रवृत्तियाँ शान्त हो गयी हैं उन्हीं के लिये भगवान ने कहा है- ‘योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।’ भगवान की यह शैली है कि वे नैष्कर्म्य का उपदेश नहीं करते। वह तो फलरूप से स्वतः प्राप्त होगा। इसी प्रकार गोपांगनाओं के लिये जो परमानन्दकन्द भगवान कृष्णचन्द्र के सौन्दर्य माधुर्य सुधारस का आस्वादन है वह फलरूप है। साधन का परिपाक होने पर वह तो उन्हें स्वयं प्राप्त होगा। वह उनके लिये कर्तव्य नहीं है- ‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।’ वे श्रुतिरूपा व्रजांगनाएँ विवेकी अन्तःकरण वृन्दारण्य में स्थित परब्रह्म रूप भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के पास गयीं। वे परमात्मा श्रुतियों का तात्पर्य अपने में सृद्दढ़ करने के लिये ‘स्थूणानिखननन्याय’ से उनकी निष्ठा को विचलित करने के लिये उनसे कहते हैं- ‘तद्यात गोष्ठम्’ अर्थात् तुम अपने समुदाय को ही जाओ। तुम्हारा अधिकांश समुदाय साध्य-साधनरूप कर्म का ही प्रतिपादन करता है; अतः तुम्हारा तात्पर्य भी कर्म में ही होना चाहिये। तुम क्यों निर्विशेष शुद्ध चैतन्यरूप सिद्ध वस्तु का प्रतिपादन करने की चेष्टा करती हो। श्रुतियों का तात्पर्य आपाततः तो कर्म में ही प्रतीत होता है, उसके लिये विशेष विवेचन की आवश्यकता नहीं होती। वे परब्रह्मपरक हैं-इसका निर्णय करने के लिये तो उपक्रम, उपसंहार, अपूर्वता आदि का ज्ञान होने की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार ‘विषं भुङ्क्ष्व’ इस वाक्य का सीधासादा अर्थ ‘विष खाओ’ आपाततः प्रतीत होता है, परन्तु वस्तुतः इसका तात्पर्य शत्रुगृह में भोजन से निवृत्त करना है। इस बात को समझने के लिये कुछ विशेष ऊहापोह की आवश्यकता होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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