भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यह विवेकचन्द्र उन सबकी अपेक्षा अधिक शोभाशाली है, क्योंकि यह सर्ववृत्तिवेद्य परमतत्त्व का अवद्योतक है। अथवा यों समझो कि जिसके अन्तर्गत समस्त वृत्तिवेद्य वस्त्वन्तर हैं यह विवेकचन्द्र उसका ज्ञान कराता है; अथवा समस्त वृत्तियाँ; उनके विषय तथा आश्रय अर्थात प्रमाता, प्रमेय और प्रमाण इन सबका अवभासक जो परमतत्त्व है उसका इस विवेकचन्द्र से ही बोध होता है, इसलिये यह उडुराज है। अथवा शान्तिदान्तिरूपा जो चित्त वृत्तियाँ हैं वे उडुस्थानीया हैं, उनकी शोभा इस विवेकचन्द्र के पूर्णतया उदित होने पर ही होती है, बिना विवेक के उनमें भी पूर्णता नहीं आती, इसलिये यह उडुराज है। अथवा ‘रलयोः डलयोश्चैव’ इत्यादि नियम के अनुसार ‘उरुधा राजते शोभते इति उरुराजः’- जो अनेक प्रकार से सुशोभित होता है वह उरुराज ही उडुराज है। विवेक के चार भेद हैं-साध्यालम्बन, साधनालम्बन, ऐक्यालम्बन और निर्विकल्पालम्बन। इस प्रकार अनेकों तरह से सुशोभित होने के कारण वह उरुराज है। त्वं पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का साक्षात्कार करना साधनालम्बन विवेक है। पंचभूत विवेकपूर्वक तत्पदार्थ के वास्तविक स्वरूप का साक्षात् रूप से अनुभव करना साध्यालम्बन विवेक है। तत् और त्वं पदार्थों का ऐक्य निश्चय करना ऐक्यालम्बन विवेक है तथा त्वं पदार्थ की उपाधि देहादि तथा तत्पदार्थ की उपाधि स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण प्रपंचादि इन दोनों प्रकार के विकल्पों को सबके अधिष्ठानभूत स्वप्रकाश परब्रह्म में लीन करके जो निर्विकल्प वस्तु का ज्ञान होता है वह निर्विकल्पालम्बन विवेक है। यहाँ कोई कह सकता है कि विवेक तो दो मिश्रित वस्तुओं के पार्थक्य करण का नाम है, किन्तु यहाँ निर्विकल्पावस्था में तो समस्त प्रपंच का अस्तित्व ही नहीं रहता। ऐसी अवस्था में किससे किसका विवेक किया जायगा? इस विषय में ऐसा समझना चाहिये कि सम्मिश्रण सर्वदा सत्य पदार्थों का ही नहीं हुआ करता, सत्य और मिथ्या पदार्थों का भी हो सकता है। यदि सत्य पदार्थों का ही सम्मिश्रण होता तो वे विवेक के पश्चात् भी बने ही रहते; किन्तु जहाँ सत्य और असत्य पदार्थों का मेल है वहाँ तो विवेक के अनन्तर असत्य का निवृत्त हो जाना ही भूषण है। इस प्रकार निर्विकल्पालम्बन विवेक भी सम्भव है ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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