भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यहाँ ‘प्राच्या मुखम् अरुणेन विलिम्पन्’ इसका अर्थ यह भी हो सकता है- “प्राच्याः नित्यप्रियायाः व्रजभुवः मुखं मुख्यं भागं श्रीवृन्दारण्यम् अरुणेन किंशुकादिपुष्पविकासेन विलिम्पन्।” अर्थात नित्यप्रिया व्रजभूमि के मुख (मुख्य भाग) श्रीवृन्दारण्य को अरुण-किंशुकादि रक्तपुष्पों के विकास द्वारा रंजित करते हुए उदित हुए। उस समय वसन्त के उदय से यों तो सभी जीव और भूमियों की ग्लानि निवृत्त हो गयी थी, किन्तु उसने प्रधानतया वृन्दारण्य को तो किंशुककुसुमादि की अरुणिमा से और भी अनुरंजित कर दिया था। इस प्रकार जब समस्त जड़वर्ग भगवान की लीला में उपयुक्त होने के लिये उद्यत हुआ तो विराट भगवान का मनरूप चन्द्रमा भी उस रमणलीला में उद्दीपनरूप से सहायक होकर उदित हुआ, क्योंकि विराट तो भगवान का परम भक्त है। उस चन्द्रमा में जो उदयकालीन लालिमा है वह उसका भगवद्विषयक अनुराग है, तथा उसमें जो श्यामता है वह मानो ध्यानाभिव्यक्त भगवत्स्वरूप है। उस चन्द्रमा की जो अरुण कान्ति है वह मानो भगवत्लीला की सम्भावना से प्रादुर्भूत हुए मानसिक उल्लास के कारण जो उसकी मन्द मुस्कान है उसी के कारण विकसित हुई दन्तावली की अधर कान्ति मिश्रित आभा है तथा उस चन्द्रमा का जो निखिलव्योमव्यापी अमृतमय शीतल प्रकाश है वह भगवद्दर्शन के अनन्तर विराट भगवान का उदार हास है। विराट के ईषत्हात में उसकी देदीप्यमान दन्तपंक्ति की आभा ओष्ठों की अरुणिमा से अरुण होकर प्रकट होती है; किन्तु उसके उदार हास में ओष्ठों के दूर हो जाने से उन ओष्ठों की अरुणिमा का सम्बन्ध बहुत कम रह जाता है, इसलिये उस समय उस दन्तपंक्ति की दीप्ति बहुत स्फुट होती है। नक्षत्रमण्डल ही विराट भगवान की दन्तावली है। उस उल्लास के कारण जो हर्षोत्कर्ष से उद्गत रोमावली है वही ये वृक्ष हैं। इस प्रकार भगवत्लीला-दर्शन के लिये उल्लसित होकर विराट भगवान का मनरूप चन्द्रमा प्रकट हुआ। उस चन्द्रमा का विशेषण है- “ककुभः-के स्वर्गे मण्डलरूपेण कौ पृथिव्यां प्रकाशरूपेण च भातीति ककुभः।” अर्थात जो मण्डलरूप से आकाश में और प्रकाशरूप से पृथ्वी में प्रकाशित होता है, वह चन्द्रमा ककुभ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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