गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
तीसरा अध्याय
कर्मयोग
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:। पर जो मनुष्य आत्मा में रमण करने वाला है, जो उसी से तृप्त रहता है और उसी में संतोष मानता है, उसे कुछ करने को नहीं रहता। नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन। करने, न करने में उसका कुछ भी स्वार्थ नहीं है। भूतमात्र में उसे कोई निजी स्वार्थ नहीं है। तस्मादसक्त: सततं कार्य कर्म समाचार। इसलिए तू तो संगरहित रहकर निरंतर कर्तव्य कर्म कर। असंग रहकर ही कर्म करने वाला पुरुष मोक्ष पाता है। कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:। जनकादिक ने कर्म से ही परमसिद्धि प्राप्त की। लोकसंग्रह की दृष्टि से भी तुझे कर्म करना उचित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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