गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
तीसरा अध्याय
कर्मयोग
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरा जन:। जो-जो आचरण उत्तम पुरुष करते हैं, उसका अनुकरण दूसरे लोग करते हैं। वे जिसे प्रमाण बनाते हैं, उसका लोग अनुसरण करते हैं। न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन। हे पार्थ! मुझे तीनों लोकों में कुछ भी करने को नहीं है। पाने योग्य कोई वस्तु न पाई हो ऐसा नहीं है, तो भी मैं कर्म में लगा रहता हूँ। टिप्पणी— सूर्य, चंद्र, पृथ्वी इत्यादि की अविराम और अचूक गति ईश्वर के कर्म सूचित करती है। ये कर्म मानसिक नहीं, किंतु शारीरिक गिने जायेंगे। ईश्वर निराकार होते हुए भी शारीरिक कर्म करता है, यह कैसे कहा जा सकता है, इस शंका की गुंजाइश नहीं है, क्योंकि वह अशारीरिक होने पर भी शरीरों की तरह आचरण करता हुआ दिखाई देता है। इसलिए वह कर्म करते हुए भी अकर्मी है और अलिप्त है। मनुष्य को समझना तो यह है कि जैसे ईश्वर की प्रत्येक कृति यंत्रवत काम करती है वैसे मुनष्य को भी बुद्धिपूर्वक किंतु विशेषत: यंत्रगति का अनादर करके स्वेच्छाचारी हो जाने में नहीं है, बल्कि ज्ञानपूर्वक उस गति का अनुकरण करने में है। अलिप्त रहकर, असंग रहकर, यंत्र की तरह कार्य करने से उसे घिस्सा नहीं लगता। वह मरने तक ताजा रहता है। देह अपने नियम के अनुसार समय पर नष्ट होती है, परंतु उसमें रहने वाला आत्मा जैसा था, वैसा ही बना रहता है। यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:। यदि मैं कभी अंगड़ाई लेने के लिए भी रुके बिना कर्म में लगा न रहूँ तो, हे पार्थ ! लोग सब तरह से मेरे बर्ताव का अनुसरण करेंगे। उत्सीदेयुरिमे लोका कुर्या कर्म चेहदम्। यदि मैं कर्म न करूं तो ये लोक भ्रष्ट हो जायें; मैं अव्यवस्था का कर्ता बनूं और इन लोगों का नाश करूं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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