गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
सोलहवां अध्याय
दैवासुरसंपद् विभागयोग
य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: । जो मनुष्य शास्त्र विधि को छोड़कर स्वेच्छा से भोगों में लीन होता है वह न सिद्धि पाता है, न सुख पाता है, न परमगति पाता है। टिप्पणी- शास्त्र विधि का अर्थ धर्म के नाम से माने जाने वाले ग्रंथों में बतलाई हुई अनेक क्रियाऐं नहीं, बल्कि अनुभव ज्ञान वाले सत्पुरुषों का अनुभव किया हुआ संयम- मार्ग है। तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ । इसलिए कार्य और अकार्य का निर्णय करने में तुझे शास्त्र को प्रमाण मानना चाहिए। शास्त्र–विधि क्या है, यह जानकर यहाँ तुझे कर्म करना उचित है। टिप्पणी- जो ऊपर बतलाया जा चुका है, शास्त्र का वही अर्थ यहाँ भी है। सबको निज-निज के नियम बनाकर स्वेच्छाचारी नही बनना चाहिए, बल्कि धर्म के अनुभवी के वाक्य को प्रमाण मानना चाहिए, यह इस श्लोक का आशय है। ॐतत्सत् इति श्रीमद्भगवद्गीता रुपी उपनिषद् अर्थात् ब्रह्मविद्यान्तर्गत योगशास्त्र के श्रीकृष्णार्जुन संवाद का ‘दैवासुरसपद्कवभाग-योग’ नामक सोलहवां अध्याय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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