गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 161/2

गीता माता -महात्मा गांधी

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अनासक्तियोग
ग्‍यारहवां अध्याय
विश्‍वरूप दर्शन योग

अमी हित्वां सुरसंघा विशन्ति
केचिद्भीता: प्राञ्जलयो गृणंति ।
स्वस्तीत्युक्त्वा मह्रर्षिसिद्ध् संघा:
स्तुवंति त्वां स्तुतिभि: पुष्कलाभि: ॥21॥

और यह देवों का संघ आपमें प्रवेश कर रहा है। भयभीत हुए कितने ही हाथ जोड़कर आपका स्तवन कर रहे हैं। महर्षि और सिद्धों का समुदाय 'जगत का कल्याण हो' कहता हुआ अनेक प्रकार से आपका यश गा रहा है।

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या
विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चीष्मपाश्च।
गंधर्वयक्षासुर सिद्धसंघा
वीक्षंते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥22॥

रुद्र, आदित्य, वसु, साध्यगण, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार, मरुत, गरम ही पीने वाले पितर, गंधर्व, यक्ष, असुर, और सिद्धों का संघ ये सभी विस्मित होकर आपको निरख रहे हैं।

रूपं महत्ते बहवक्त्रनेत्रं
महाबाहो बहुबाऊरुपादम्‌ ।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं
दृष्ट्वा लोका: प्रव्यथितास्तथाहम्‌ ॥23॥

हे महाबाहो! बहुत मुख और आंखों वाला, बहुत हाथ, जंघा और पैरों वाला, बहुत पेटो वाला और बहुत दाढ़ों के कारण विकराल दीखने वाला विशाल रूप देखकर लोग व्याकुल हो गये हैं। वेसे मैं भी व्याकुल हो उठा हूँ।

नभ:स्पृशं दीप्त्मनेकवर्णं
व्यात्ताननं दीप्त्विशाल्नेत्रं ।
दृष्ट्‌वा हित्वां प्रव्यथितांतरात्मा
धृतिं न विंदामि शमं च विष्णो ॥24॥

आकाश का स्पर्श करते, जगमगाते, अनेक रंग वाले, खुले मुख वाले और विशाल तेजस्वी नेत्र वाले,आपको देखकर, हे विष्णु! मेरा हृदय व्याकुल हो उठा है और मैं धैर्य या शांति नहीं रख सकता।

दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि
दृष्ट्‌वैव कालानलसन्निभानि ।
दिशो न जाने न लभे च शर्म
प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥25॥

प्रलयकाल के अग्नि के समान और विकराल दाढ़ों वाला आपका मुख देखकर न मुझे दिशाएं जान पड़ती हैं, न शांति मिलतीहै। हे देवेश! हे जगन्निवास! प्रसन्न होइए।

अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्र:
सर्वे सहैवावनिपालसंघै: ।
भीष्मो द्रोण: सूतपुत्रस्तथासौ
सहासम्दीयैरपि योधमुख्यै: ॥26॥

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशंति
दृंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।
कैचिद्विलग्ना दशनांतरेषु
संदृश्यंते चूर्णितैरुत्तङ्गै: ॥27॥

सब राजाओं के संघ सहित, धृतराष्ट्र के ये पुत्र, भीष्म, द्रोणाचार्य, यह सूतपुत्र कर्ण और हमारे मुख्य योद्धा, विकराल दाढ़ों वाले आपके भयानक मुख में वेगपूर्वक प्रवेश कर रहै हैं। कितनों के ही सिर चूर होकर आपके दांतों के बीच में लगे हुए दिखाई देते हैं।

यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगा:
समुद्र्मेवाभिमुखा द्रवंति ।
तथा तवामी नरलोकवीरा
विशंति वक्त्राण्यभिविज्वल्न्त ॥28॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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