गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
आठवां अध्याय
अक्षरब्रह्म्रयोग
पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया। हे पार्थ! इस उत्तम पुरुष के दर्शन अनन्य भक्ति से होते हैं। इसमें भूतमात्र स्थित हैं और यह सब उससे व्याप्त है। यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिन:। जिस समय मरकर योगी मोक्ष पाते हैं और जिस समय मरकर उन्हें पुनर्जन्म प्राप्त होता है, वह काल है, भरतर्षभ! मैं तुझसे कहूंगा। अग्निनर्ज्योतिरह: शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम्। उत्तरायण के छ: महीनों मे, शुक्ल पक्ष में दिन को जिस समय अग्नि की ज्वाला उठ रही हो उस समय जिसकी मृत्यु होती है वह ब्रह्म को जानने वाला, ब्रह्म को पाता है। धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण: दक्षिणायन के छ: महीनों में, कृष्ण पक्ष में, रात्रि में जिस समय धुआं फैला हुआ हो उस समय मरने वाले चंद्रलोक को पाकर पुनर्जन्म पाते हैं। टिप्पणी- ऊपर के दो श्लोक मैं पूरी तौर से नहीं समझता। उनके शब्दार्थ का गीता की शिक्षा के साथ मेल नहीं बैठता। उस शिक्षा के अनुसार तो जो भक्तिमान है, जो सेवामार्ग को सेता है, जिसे ज्ञान हो चुका है, वह चाहे जभी मरे, उसे मोक्ष ही है। उससे इन श्लोकों का शब्दार्थ विरोधी है। उसका भावार्थ यह अवश्य निकल सकता है कि जो यज्ञ करता है अर्थात परोपकार में ही जो जीवन बिताता है, जिसे ज्ञान हो चुका है, जो ब्रह्मविद् अर्थात ज्ञानी है, मृत्यु के समय भी यदि उसकी ऐसी स्थिति हो तो वह मोक्ष पाता है। इससे विपरीत जो यज्ञ नहीं करता जिसे ज्ञान नहीं है जो भक्ति नहीं जानता वह चंद्रलोक अर्थात क्षणिक लोक को पाकर फिर संचार-चक्र में लौटता है। चंद्र के निजी ज्योति नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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