भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
बहुत से भाव ऐसे होते हैं जो ऊपर से तो अन्य प्रकार के जान पड़ते हैं, किन्तु भीतर से उनका और ही रहस्य होता है। यह बात स्पष्ट ही है कि भगवान प्राकृत नहीं है। वे शुद्ध परब्रह्म ही उस रूप से आविर्भूत हुए हैं तथा ये मुनिजन भी पंचकोशातीत होने के कारण प्राकृत प्रपंच से परे हैं। इस प्रकार घटाकाश और महाकाश के समान स्वरूप से उनका सम्मिलन है ही। उनका ऐक्य सभी को अभिमत है। किन्तु इस समय वह तत्पदार्थ परमात्मा ही दिव्य मंगलमय भगवद्विग्रहरूप से आविर्भूत हुए हैं और उसी प्रकार त्वं पदार्थ अमलात्मा परमहंसों के रूप में स्थित है। ऐसी स्थिति में, जैसे अव्यक्त रूप से उनका तादात्म्य है उसी प्रकार, यदि व्यक्त रूप से भी तादात्म्य हो तो क्या अभिज्ञों की दृष्टि में वह प्राकृत सम्भोग होगा? स्वरूपसे तो उनका नित्य सम्भोग है ही। ‘सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति’, ‘अत्र ब्रह्म समश्नुते’ इत्यादि वाक्यों से यह बात कही गयी है। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण ‘तत’ पदार्थ हैं और गोपांगनाएँ ‘त्वं’ पदार्थ हैं। यदि इन दोनों का परस्पर संश्लेष हो तो क्या वह कामक्रीड़ा कही जायगी? स्थूल दृष्टि से तो अवश्य यह कामक्रीड़ा-सी मालूम होती है, परन्तु अन्तरंग दृष्टि से तो यह जीव और ब्रह्म का अद्भुत संयोग ही है। श्रीमद्भागवत में यह कई स्थानों में देखा जाता है कि गोपांगनाएँ श्रीकृष्णचन्द्र के वियोग में संतप्त रहती थीं और हर समय उनके दर्शनों के लिये लालायित रहती थीं और इसी प्रकार भगवान भी व्रजसुन्दरियों की विरह-व्यथा से व्याकुल रहते थे। उन दोनों ही को पारस्परिक संयोग बहुत अभीष्ट था। प्रेम का यह स्वभाव है कि प्रेमी परस्पर गाढालिंगन के लिये उत्सुक रहा करते हैं। माता अपने सुकुमार शिशु को हृदय से लगाने में कितना सुख अनुभव करती है। जो जितना अधिक प्रेमास्पद होता है उसका व्यवधान उतना ही अधिक असह्य होता है। यहाँ ऐसा भी कहा जाता है कि जिस समय व्रजांगनाएँ भगवान का आलिंगन करती थीं उस समय उन्हें अपने हार, आभूषण और कंचुकी का व्यवधान तो असह्य था ही, प्रत्युत प्रेमातिरेक के कारण जो रोमांच होता था वह भी अत्यन्त अप्रिय जान पड़ता था। अतः सिद्धान्त यही हे कि प्रेम का पर्यवसान अभेद में ही होता है, भेद में नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज