भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
इसके सिवा श्रुतियों के अवान्तर तात्पर्य अन्य-अन्य होने पर भी, उनका प्रधान तात्पर्य तो ब्रह्म में ही है। शब्द से दो बातों का बोध हुआ करता है- जाति और व्यक्ति। त्वतलादिप्रत्ययवेद्य जाति भाव रूप ही होती है। “तस्यभावस्त्वतलौ” इस पाणिनि सूत्र के अनुसार घट की भावरूप जाति ही घटत्व है, वह वस्तुतः एक भावविशेष में स्थित मृत्तिका ही है। इस प्रकार घट का वाचक ‘घट’ शब्द भी मूलतः उसके कारण मृत्तिका का ही बोधन करता है। इसी प्रकार जितने शब्द हैं वे सब अपने अभिधेय विभिन्न पदार्थों के मूल कारण परब्रह्म के ही वाचक हैं। अतः अवान्तर श्रुतियों का भी मुख्य तात्पर्य तो परब्रह्म में ही है। विचार किया जाय तो वस्तुतः वाच्य-वाचक का भेद भी नहीं है। ये दोनों एक ही चेतन के विवर्त है। अभिधेय-प्रपंचजननानुकूल शक्त्यवच्छिन्न चेतन का विवर्त अभिधेय है, और “अभिधानात्मक-प्रपंच जननानुकूल-शक्त्यवच्छिन्न” चेतन का विवर्त अभिधान है। जिस प्रकार एक ही परब्रह्म में अभिधान-अभिधेय रूप अनन्त तरंगें प्रादुर्भूत हो गयी हैं, किन्तु “तदभिन्नाभिन्नस्य तदभिन्नत्वन्नानियमात” इस न्याय के अनुसार तरंगाभिन्न समुद्र के साथ तरंगों का अभेद होने के कारण, उनका आपस में भी अभेद है। यह बात तो तरंग से तरंगान्तर के अभेद की रही, किन्तु मूल दृष्टि से तो अभिधानात्मक तरंग जिस समुद्र में है, लक्षणावृत्ति से वह उस समुद्र का ही बोधन करती है, हाँ, अभिधेयात्मक तरंगान्तर को वह अभिधावृत्ति से बोधित करती है, क्योंकि किसी की भी शक्ति अपने शक्य में ही सफल हुआ करती है, अपने कारण में नहीं होती। दाहकत्व, प्रकाशकत्व आदि शक्तियों वाला अग्नि अपने दाह्य काष्ठादि को ही दग्ध कर सकता है, अपने स्वरूपभूत अग्नि का दहन नहीं कर सकता। मूल रूप से तो तरंगें समुद्र से भिन्न नहीं हैं यह दूसरी बात है कि “अकारो वै सर्वभाक्” इस श्रुति के अनुसार सम्पूर्ण वाङ्मय-प्रपंच का अकार में, अकार का उकार में और उकार का मकार में तथा उसके पश्चात सम्पूर्ण प्रपंच का तुरीय में लय होता है। तात्पर्य यह है कि अभिधानात्मिका श्रुतियाँ अनन्त चैतन्यानन्द सुधासिन्धु की तरंगों के समान हैं, और वे उसकी अभिधेयरूप अन्य तरंगों के साथ वृद्धि को प्राप्त होकर प्रकाशित होती हैं, क्योंकि अभिधेय अर्थ उनके शक्य हैं। श्रुतियाँ अपने उद्गमस्थलभूत परमतत्त्व का तो लक्षणा से ही बोध कराती हैं। यद्यपि किसी दृष्टि से “घट” का वाच्य घटाकार में परिणत मृत्तिका भी हो सकती है, तथापि लोक में “घट” पद का वाच्य घट व्यक्ति ही समझी जाती है। इस प्रकार अभिधानात्मक ब्रह्म तरंग का वाच्य अभिधेयात्मक ब्रह्म तरंग तो है, परन्तु लक्षणा से ही है। फिर मीमांसकों ने तो जाति में ही शक्ति मानी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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