भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
मानसी-आराधना
अजगर रूपधारी अघासुर के मुख में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द ने भी अपने बछड़ों की रक्षा के लिये प्रवेश किया। अघासुर अपनी अजगर देह को छोड़ भगवान के स्वरूप में मिल गया। साधारण दृष्टि से यहाँ आश्चर्य हो सकता था कि गो-ब्राह्मणों के मांस-रूधिरों से उदर-पोषण करने वाले, देव-धर्म-शास्त्रद्रोह उस असुर को भगवत्सायुज्य पद कैसे प्राप्त हुआ? इसी पर ‘श्रीमद्भागवत’ में शुक ने परीक्षित से कहा राजन! जिसके मंगलमय श्रीअंग की मानसी-प्रतिभा एक बार हृदय में धारण करने मे अपरिगणित प्राणियों को मुक्ति प्राप्त हो जाती है, वे मायातीत सच्चिदानन्द भगवान जिसके हृदय में साक्षात प्रविष्ट हुए उसके सायुज्य (मुक्ति) में क्या आश्यर्च-
भगवान के मंगलमय श्रीअंग की काष्ठमयी, धातुमयी प्रतिमा भी श्रद्धा-उत्कण्ठापूर्वक हृदय में धारण और चिन्तन करने से प्राणियों को परम सद्गति प्रदान करती है। जिन महानुभावों के अन्तर हृदय में भगवान के श्रीअंग की मनोमयी प्रतिमा सदा विराजमान रहती है वे तो अपना ही क्या, विश्व का कल्याण कर सकते हैं। वे भगवान की मानसी मूर्ति के ध्यान को ही परम पुरुषार्थ मानते हैं, त्रिभुवन-सम्पत्ति के लिये भगवान के मंगलमय श्रीचरणारविन्द से लव या अर्ध निमेष भी नहीं चलायमान होते । जिस हृदय में भगवान के चरणारविन्द की नखचन्द्र-चन्द्रिका विस्तीर्ण है, वहाँ शोक-मोह, पाप-ताप रह ही कैसे सकते हैं? जिस तरह शैत्य के योग से निर्मल जल ही बर्फ, ओला रूप से उपलब्ध होता है, किंवा घृत-वर्तिका या विचित्र जलादि के संघर्ष से अदृश्य व्यापक अग्नि ही दाहकत्व प्रकाशकत्व विशिष्ट दीपशिखा या विद्युल्लता-रूप में अभिव्यक्त होती है, उसी तरह विशुद्ध सत्त्वमयी स्वेच्छा या कृपा के योग से ही अदृश्य, अनन्त, आनन्द सुधाम्बुनिधि परम तत्त्व ही माया से अनभिभूत या असंस्पृष्ट दिव्य मूर्तिमान होकर व्यक्त होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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