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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
सखि! आओ, इस न्यग्रोध से पूछें, यह जिह्वा वाला है, इसके दल जिह्वा के जैसे हैं। यों नये-नये क्रमों से बार-बार पूछती फिरती हैं। फिर कुछ जवाब न मिलने से दोषानुसन्धान की सुध हो आती है। कहती हैं- ‘सखि, अब जाना, यह ऊँचा (दर्पिष्ठ) होने से क्षुद्र है, यह क्षुद्रफल भी है (पीपल जितना बड़ा है, फल उसके उतने ही छोटे हैं), चाहे कितना भी आराधन करें इससे महाफल-श्याम नहीं मिलेंगे। यह अश्वत्थ है- अस्थायी है।’ सहसा ‘वट’ पर दृष्टि चली जाती है। कहती हैं- ‘देखो, इसकी शाखा कितनी झुकी हैं, यह विनम्र है (नितराम् अग्राणि अधोभूतानि यस्य असौ) शिव देवताक हैं; शिव परम वैष्णव हैं। अतः यह अवश्य बतायेगा।’ परन्तु उत्तर की कोई आशा न देखने पर कहती हैं- इसकी बड़ी से बड़ी भी उन्नति अवनति ही है। देखो, शाखा नीचे घुसती जा रही है- “नितरामग्राणि अधोभूतान्यवनतिः यस्य असौ न्यग्रोधः।” अश्वत्थ परोपकारी नहीं है, अतः ‘दरिद्रा’ इसमें निवास करती है। बात यह है- दरिद्रा लक्ष्मी की बड़ी बहिन हैं। उसे कोई नहीं ब्याहता था। इसीलिये लक्ष्मी का भी विवाह रुका रहा, क्योंकि छोटे भाई-बहिन का विवाह पहले हो जाने से ‘पिरवित्ता’-‘परिवित्ती’ दोष होता है। अन्ततः बहुत कुछ समझाने-बुझाने पर अश्वत्थ ने दरिद्रा से विवाह किया। उसे प्रसन्न रखने के लिये यह तय किया गया कि शनिवार के दिन श्रीनारायण सहित लक्ष्मी वहाँ आकर बसे। अत: अन्य दिनों में अश्वत्थ के स्पर्श का निषेध है। यह अश्वत्थ उपकारी नहीं, इसी का फल है जो इसे दरिद्रा मिली है। श्रीमद्वल्लभाचार्य जी के कथनानुसार श्रीव्रजवनिताओं ने प्लक्ष में यह दोष देखा- ‘प्लक्ष अपवित्र है, देवताओं ने स्वर्ग की कामना से पशु को आलम्बन किया, उसी से यह उत्पन्न हुआ, अतः अपवित्र है। तभी तो प्राणजीवन का पता नहीं देता।’ यह सब निराश होने पर कहा जाता है, सान्त्वना के समय ऐसा नहीं कहा जाता। अथवा अपना मनोरथ सिद्ध न होने पर भी वे व्रजदेवियाँ वृक्षों से असूया नहीं करतीं। क्योंकि वे प्रेममार्ग की आचार्या हैं। अतः कहती हैं- ‘कच्चित्-’‘कुत्सितश्वेतनवर्गोऽपि यस्मात्।’ अर्थात्; इस वृन्दावन वृक्ष समूह की अपेक्षा चेतन वर्ग भी कुत्सित है, इन्द्रादि भी निकृष्ट हैं। ब्रह्मा, वह तो आशा लगाये बैठा है- ‘वह दिन कब उदित होगा, वह ऊँचा भाग्य कब जागेगा कि जब श्रीवृन्दावटी में, मैं कुछ लता-पत्र पाद-धूलि बनूँगा और किसी बड़भागी व्रजवासी के चरण से मेरा उद्धार होगा’- ‘तद्भूरिभाग्यमिहजन्म किमप्यटव्यां यद्गोकुलेऽपि कतमाङ्घिरजोभिषेकम।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भाग., स्क. 10, अ. 14, श्लोक 34)
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