गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
छठा अध्याय
ध्यानयोग
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। जो मनुष्य आहार-विहार में, दूसरे कर्मों में, सोने-जागने में परिमित रहता है, उसका योग दु:खभंजन हो जाता है। यदा विनियतं चित्तमातमन्येवाबतिष्ठते। भली-भाँति नियमबद्ध मन जब आत्मा में स्थिर होता है और मनुष्य सारी कामनाओं से निस्पृह हो बैठता है तब वह योगी कहलाता है। यथा दीपो निदातस्थो नेडते सोपमा स्मृता। आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ने का प्रयत्न करने वाले स्थिर चित्त योगी की स्थिति वायु-रहित स्थान में अचल रहने वाले दीपक की-सी कही गई है। यत्रोपरमते चितं निरुद्धं योगसेवया। योग के सेवन से अंकुश में आया हुआ मन जहाँ शांति पाता है, आत्मा से ही आत्मा को पहचानकर आत्मा में जहाँ मनुष्य संतोष पाता है और इंद्रियों से परे और बुद्धि से ग्रहण करने योग्य अनंत सुख का जहाँ अनुभव होता है, जहाँ रहकर मनुष्य मूल-वस्तु से चलायमान नहीं होता और जिसे पाने पर दूसरे किसी लाभ को वह उससे अधिक नहीं मानता और जिसमें स्थिर हुआ महादु:ख से भी डगमगाता नहीं, उस दु:ख के प्रसंग से रहित स्थिति को नामयोग की स्थिति समझना चाहिए। यह योग ऊबे बिना दृढ़तापूर्वक साधन योग्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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