महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
शिक्षा का प्रबन्ध
एकलव्य- "मैंने सुना है कि आज के समय में वही श्रेष्ठ आचार्य हैं, इसलिए मैंने बड़ी भक्ति से उनकी मिट्टी की एक मूर्ति बनाई और उसी मूर्ति में सच्ची भक्ति रखकर मैं धनुष चलाना सीखने लगा। यह सब गुरु द्रोणाचार्य की भक्ति का ही प्रताप है।" द्रोणाचार्य ने एकलव्य से अपनी धर्नुविद्या के करतब दिखलाने को कहा और उसने ऐसे हुनर दिखलाए कि अर्जुन को एकलव्य से ईर्ष्या होने लगी। द्रोणाचार्य जी बड़े चतुर दुनियादार थे, एक ओर वे जहाँ अपने में भक्ति रखने वाले भील बालक से प्रसन्न हुए, वहीं दूसरी ओर उन्होंने यह भी ताड़ लिया कि राजकुमार अर्जुन को डाह होने लगी है। बड़ी गरीबी भोगने के बाद जब सुख से रहने वाले द्रोणाचार्य अपने राजकुमार चेले को अप्रसन्न न करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने एकलव्य को अपना परिचय दिया। एकलव्य ने गद्गद होकर उन्हें प्रणाम किया। आचार्य बोले- "एकलव्य, तुमने मुझसे विद्या सीखी, इसलिए तुम्हें गुरुदक्षिणा भी देनी होगी।" एकलव्य ने तुरन्त हाथ जोड़कर उनसे कहा कि मेरी हैसियत देख लें और उसके हिसाब से जो चाहें मांग लें। गुरु जी ने कहा कि तुम दायें हाथ का अंगूठा काट कर हमें दक्षिणा में दे दो। एकलव्य यह समझते हुए भी कि अपने राजकुमार चेले को प्रसन्न करने के लिए गुरु जी पक्षपातपूर्ण गुरु दक्षिणा मांग रहे हैं, हंसते-हंसते अपना अंगूठा काटकर गुरु जी के चरणों में रख दिया। उसने कहा- "अंगूठा कट जाने से मेरी धर्नुविद्या में कमी नहीं पड़ेगी। गुरु जी, अगर आपमें मेरी भक्ति सच्ची रही तो मैं अब केवल चार उंगुलियों के बल पर ऊंचा धनुर्धर बन जाऊंगा।" एकलव्य के समान निष्ठा रखने वाले बालक अपनी मनचाही शक्ति सिद्ध करके ही रह सकते हैं, उन्हें कोई शक्ति रोक नहीं सकती। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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