भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इससे सिद्ध हुआ कि श्रीकृष्ण के सहवास के कारण ही व्रजांगनाओं ने अनन्तकोटि ब्राह्मी रात्रियाँ क्षणार्ध के समान बिता दी थीं और अब उनके बिना ही उन्हें साधारण रात्रियाँ भी कल्प के समान हो रही हे।। अतः जिन रात्रियों ने उन्हें इतना सुख पहुँचाया वे अवश्य विलक्षण ही थीं। इसका एक दूसरा तात्पर्य भी हो सकता है। महाराज परीक्षित को एक बड़ा सन्देह था। उनके मन में इस बात का बड़ा उद्वेग था कि भगवान तो बड़े ही भक्तवत्सल हैं, उन्होंने सदा ही भक्तों के ऊपर बड़ा अनुग्रह प्रदर्शित किया है; नन्द, उपनन्द आदि वृद्ध गोपों को तो उन्होंने अपनी दिव्यातिदिव्य लीलाएँ दिखाकर परमानन्द प्रदान किया, तथा उन्हें ब्रह्मह्रद और महावैकुण्ठ का भी दर्शन कराया; परन्तु जो गोपांगनाएँ अनेकों जन्मों से उनकी मधुरभाव से उपासना कर रही थीं। जिनमें अन्यपरा श्रुतियाँ, ऋषिचरी और देवकन्या आदि साधनसिद्धा व्रजांगनाएँ सम्मिलित हैं, यहाँ तक कि उनमें से अनेकों तो भगवत्संस्पर्श की कामना से ललिता, विशाखा आदि यूथेश्वरियों की ही उपासना की थी-उन सबकी ओर से न जाने भगवान क्यों उदासीन थे? उनकी मनोकामना भी तो पूर्ण होनी ही चाहिये थी। भगवान तो आप्तकाम हैं, फिर गोपोंगनाओं की मनोकामना कैसे पूर्ण हो? गोपांगनाओं की तो यह अभिलाषा बहुत समय से थी किन्तु जब तग भगवान को रमणाभिलाष न हो तब तक उसकी पूर्ति कैसे हो सकती है? परीक्षित को यह सन्देह हो ही रहा था कि श्रीशुकदेव जी बोल उठे-
तात्पर्य यह है कि ‘भगवानपि उपाश्रितः उपासितः मायां वीक्ष्य ता रात्रीश्चक्रे’-उनके द्वारा इस जन्म और पूर्वजन्मों में उपासित हुए भगवान ने भी माया की ओर देखकर वे विलक्षण रात्रियाँ बनायीं। इस मुनिरूपा और श्रुतिरूपा व्रजांगनाओं के भी कई भेद हैं। श्रुतिरूपा व्रजांगनाओं में जो अनन्यपरा हैं उनमें भी मानिनी और मुग्धा ये दो भेद हैं। जो श्रुतियाँ निषधमुख से परब्रह्म का प्रतिपादन करती हैं वे मानिनी हैं; जैसे ‘नेति नेति’, ‘अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययम्’ इत्यादि। भावुकों ने इसके बड़े विलक्षण तात्पर्य व्यक्त किये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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