भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
“ग्राम्यैः समं ग्राम्यवदीशचेष्टितम्।” उन गँवार ग्वालबालों के साथ वे ग्रामीणों की-सी ही चेष्टाएँ किया करते थे। यह उनके प्रेमातिशय का ही फल था। यदि कहो कि ऐसा हो ही नहीं सकता; क्योंकि ‘न संद्दशे तिष्ठति रूपमस्य’, ‘यन्मनसा न मनुते’ इत्यादि वचनों के अनुसार ब्रह्म तो समस्त इन्द्रियों का अविषय है। वह वृन्दावनवासियों की इन्द्रियों का विषय कैसे हो सकता है? तो ऐसा कहना ठीक नहीं; क्योंकि ‘यन्मनसा न मनुते’ इत्यादि श्रुतियों के अनुसार वह समस्त इन्द्रियों का अवषिय होने पर भी ‘दृश्यते त्वग्रयया बुद्ध्या’ इस श्रुति के अनुसार सूक्ष्म बुद्धि का विषय तो है ही। इसी प्रकार ह प्रेमदृष्टि का भी विषय हो ही सकता है। जिस प्रकार ‘दृश्यते त्वग्रयया बुद्ध्या’ इस श्रुति को देखकर आप यह कल्पना करते हैं कि वह संस्कृत बुद्धि का ही विषय होता है, असंस्कृत बुद्धि का विषय नहीं होता, उसी प्रकार हम भी यह कह सकते हैं कि वह प्रेमदृष्टि का विषय है; क्योंकि इस सम्बन्ध में ये वाक्य प्रमाण हैं-
यदि कहो कि नहीं, मन से ब्रह्म नहीं देखा जा सकता। ‘दृश्यते त्वग्रयाय बुद्ध्या’ इस वाक्य का अर्थ केवल इतना ही है कि महावाक्य के श्रवण से ब्रह्म का आवरण निवृत्त होता है; फिर तो स्वयं प्रकाश ब्रह्म का स्वतः ही स्फुरण हो जायगा, तो हम भी यही कह देंगे कि ब्रह्म स्वयं प्रकाश है, प्रेमदृष्टि से केवल उसका आवरण निवृत्त हो जाता है। अब यदि तुम्हारा ऐसा विचार हो कि इंद्रियगोचरत्वरूप हेतु के कारण ब्रह्म मिथ्या है तो ऐसा सिद्ध नहीं हों सकता, क्योंकि इन्द्रियों की अविषयता तो परमाणुओं में भी है तथापि वे मिथ्या नहीं माने गये हैं। अतः इन्द्रियगोचरतारूप हेतु मिथ्या तत्त्व का साधक नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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