भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
ब्रह्मादि सभी देवताओं की अपेक्षा अधिक नेत्र होने के कारण देवराज इन्द्र को सबसे अधिक आनन्द हुआ और उन्होंने गौतम ऋषि के शाप को, जिसके कारण उन्हें सहस्र भग प्राप्त हुए थे और जो पीछे मुनि के प्रसन्न होने पर सहस्र नेत्र हो गये थे, अपने लिये परम हितकर माना। उनी मनोवृत्ति को व्यक्त करते हुए श्रीगोसाईं जी महाराज ने कहा है-
यह बात तो इन्द्रादि देवताओं की है। परन्तु गोपांगनाएँ तो प्रेममार्ग की आचार्या हैं, उनमें भी श्रीराधिका जी तो साक्षात भगवान की आह्लादिनी शक्ति हैं, उनके प्रेम की तुलना देवताओं के साथ क्या की जा सकती है? इसी से इन्द्रादि तो भगवान की रूपमाधुरी का अधिक से अधिक सहस्र नेत्रों से ही पान करके तृप्त हो गये, किन्तु श्रीवृषभानुनन्दिनी तो कहती हैं कि हमारे प्रत्येक रोमकूप में कोटि-कोटि नेत्र हों तब भी हम श्रीश्यामसुन्दर के सौन्दर्य के एक कण का भी यथेष्ट रसास्वादन नहीं कर सकतीं। भला प्रेम में कभी तृप्ति होती है? यह नियम है कि वस्तु चाहे एक ही हो किन्तु उसका जो जितना अधिक रसज्ञ होगा उसे वह उनती ही अधिक सरस प्रतीत होगी। अरसिकों को रसमय पदार्थ भी उतना सरस प्रतीत नहीं होता। देखो, ब्रह्म सर्वत्र ही है, तथापि उसके परमानन्द की सबको समान अनुभूति नहीं होती। उसकी स्फुट प्रतीति तो भावुक भक्तगण तथा आत्माराम मुनिजन को ही होती है। एक चित्रकार ने एक चित्र तैयार किया और उसे वह किसी राजा के यहाँ ले गया। परन्तु राजा ने उसका कोई विशेष रहस्य नहीं समझा; केवल उदासीन भाव से उसका 10000 मूल्य देने को कहा। किन्तु चित्रकार ने इस मूल्य में चित्र देना स्वीकार न किया। जिस समय वह उसे लौटाकर ले जा रहा था, बीच में उसे एक राजसेवक मिला। उसने आग्रहपूर्वक वह चित्र दिखाने को कहा। जब चित्रकार ने उसे खोलकर दिखलाया तो वह राजसेवक उसका हस्तकौशल देखकर दंग रह गया। किन्तु उसके पास उस चित्र को मोल लेने योग्य द्रव्य नहीं था। उस समय वह केवल एक धोती बाँधे हुए था। उसने उसमें से लँगोटीभर फाड़कर वह धोती उस चित्रकार को दे दी। चित्रकार ने भी उस धोती के बदले में ही वह चित्र उसे दे दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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